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शनिवार, 30 अप्रैल 2016

एक संस्मरण : मेरे स्मृति के पात्र : श्रीपाल सिंह ’क्षेम’


[भूमिका : ।कहते हैं ,जीवन के अन्तिम दिनों में चेतन या अवचेतन मन में अवस्थित  घटनाएँ ,खट्टी-मीठी यादें ,किसी चलचित्र के ’फ़्लैश बैक’ की भाँति एक एक कर के सामने आने लगती है । संभवत: पिताश्री के साथ भी ऐसा ही हुआ हो और  लेखनीबद्ध कर दिया ।वह अपने जीवन काल में अनेक विभूतियों से व्यक्तिगत रूप से प्रभावित रहे । इन्ही विभूतियों में से एक थे श्री श्रीपाल सिंह ’क्षेम’ । जो हिन्दी के प्रेमी हैं उन्हें क्षेम जी के परिचय की आवश्यकता नहीं है ।क्षेम जी जौनपुर [उ0प्र0] के निवासी थे और अपने समय में हिन्दी के  एक प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय गीतकार थे।क्षेम जी के बारे में विशेष जानकारी इन्टेर्नेट पर ,कविताकोश आदि पर भी उपलब्ध है यहाँ पर दुहराने की आवश्यकता नही हैं।  

प्रथम कड़ी में श्री ’क्षेम’ जी के संस्मरण प्रस्तुत कर रहा हूँ । यह पिता जी की किताब  - मेरी स्मृति के पात्र - [अप्रकाशित] से लिया गया है । क्षेम जी अब इस दुनिया में नहीं हैं ,पिता श्री भी नहीं है । भगवान उन दोनों की आत्मा को शान्ति प्रदान करें

पिता श्री के इस संस्मरणात्मक लेख पर आप सभी का ’आशीर्वाद’ चाहूंगा ----------------प्रस्तुतकर्ता ---आनन्द.पाठक [09413395592]
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संस्मरण : मेरे स्मृति के पात्र : श्रीपाल सिंह ’क्षेम’      क़िस्त 1
----[स्व0] रमेश चन्द्र पाठक

समाचार पत्र में मैने ज्यों ही पढ़ा कि श्री श्रीपाल सिंह क्षेम का निधन दिनांक 22-अगस्त सन 2011 को हो गया तो मैने समाचार पत्र को अलग रख, विस्मृतियों में खो गया।आज के दिन बहुत कम लोगों को यह मालूम होगा -क्योंकि इस बात को जानने वाले अब इस संसार में होंगे भी नहीं- कि वह इलाहाबाद विश्वविद्यालयीय युग में मेरे अभिन्न मित्रों में से एक थे।वह समय 1945 से 1949 तक का था ।वह  काल  समाप्त होने पर भौगोलिक दूरियाँ बढ़ती चली गईं। जब तक उनका सम्बन्ध मेरा ज़िला ग़ाज़ीपुर [उ0प्र0] के ग्राम मैनपुर [शहर मुख्यालय से 20-25 कि0मी0] से था तो मैनपुर आते-जाते समय वह तमाम व्यस्तताओं के बावज़ूद मेरे आवास पर  घंटे दो घंटे रुका करते थे । हाल चाल का आदान-प्रदान होता था। कुछ नई ,कुछ पुरानी बातें भी हुआ करती थीं।इसी बहाने हम एक दूसरे की काव्य-प्रगति के से भी अवगत हो जाया करते थे।कभी कभी यूँ ही और कभी कभी कविताओं का सस्वर पाठ भी हो जाया करता था। पर मैनपुर से उनका सम्बन्ध समाप्त होते ही उनका आना-जाना भी बन्द हो गया और फिर हम दोनों का सम्पर्क भी शनै: शनै: कम होता चला गया।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय जीवन में उनका दर्शन प्रथम बार ’यूनिवर्सिटी यूनियन हाल’ मेंआयोजित एक स्थानीय कवि-सम्मेलन में हुआ था जिसमें बहुत से कवियों ने अपनी अपनी कवितायें सुनाई थीं। उनमें से कुछ तो ’तुकबन्दी’ से थोड़ा ही ऊपर थीं। कुछ मात्र शब्द जाल थीं। उस कवि सम्मेलन में पढ़ी गईं कविताओं में से जिस कविता ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया वह श्री क्षेम जी की ही कविता थी। उनके छात्रावास के बारे में जानकारी प्राप्त किया तो मालूम हुआ कि वह मेरे ही छात्रावास-हिन्दू बोर्डिंग हाउस’  में ही रहते थे।अन्धे को आँख मिली , बाँछे खिल गईं।अब मित्रता स्थापित कर निकट आने में सहूलियत हो गई। सुबह पता किया तो उनके कमरे का नम्बर भी मालूम हो गया।मित्रता के प्रथम चरण का सूत्र यहीं से शुरु हुआ। कुछ दिन तक चलने वाली यह सलाम बन्दगी.हाल-चाल,पूछ ताछ में बदलने लगी । निकटता बढ़ने के साथ साथ बातचीत की परिधि भी बढ़ने लगी।
एक एक कर के कितने ही भूले बिसरे चित्र मानस पटल पर उभरने लगे।उभरते ,थोड़ी देर ठहरते फिर विलुप्त हो जाते। ’ क्या भूलूँ क्या याद करूँ’-वाली स्थिति मेरे सामने भी आने लगी।आँखें बन्द कर स्मृतियों में खोता चला जा रहा था।समाचार पत्र सामने आगे पढ़े जाने की प्रतीक्षा में था ,परन्तु पढ़ने की इच्छा नहीं हो रही थी।
..... क्षेम जी  मुझसे जेष्ठ थे।मैं उस समय बी0ए0 प्रथम वर्ष में था और वे कदाचित बी0ए0 द्वितीय वर्ष के छात्र थे।आयु में भी वो मुझसे बड़े थे पर विद्यार्थी जीवन में 3-4 साल की घटोत्तरी-बढ़ोत्तरी का कोई ख़ास महत्व नहीं होता।हम सभी उस समय सम-वयस्क की श्रेणी में आते थे । और इस श्रेणी में आने के कारण बातचीत का धरातल लगभग समान ही होता था।मेरे परिप्रेक्ष्य में तो यह और भी समान था।वे कवि थे और मैं काव्य रसिक- ऊपर से थोड़ी बहुत तुकबन्दी भी कर लेता था जिसे वह कभी कभी मुझे ’कपि महोदय’ संबोधित कर मेरी रचनाएं संशोधित भी कर दिया करते थे। उनकी दुबली पतली नाटी काया में कवियों के लिए बड़ी स्नेह और  ममता भरी थी।
इसी ममता के चलते ,आपसी मेल-जोल बढ़ाने के लिए एक कवि-मित्र संघ बना रखा था । हिन्दू बोर्डिंग हाउस वाले संघ में हम कुल 5-सदस्य थे-एक तो वह स्वयं जिला जौनपुर के ,दूसरे श्री राजाराम मिश्र ’राजेश’ जी उन्हीं के जिला जौनपुर के ,तीसरा मैं स्वयं रमेश चन्द्र पाठक ,चौथे श्री अदभुत नाथ मिश्र जिला बलिया के और पाँचवे श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना -[अभी जिला का नाम  याद नही आ रहा है]
हमलोगों का मिलना जुलना लगभग प्रतिदिन साँझ-सबेरे हुआ करता था।
इसी मेल जोल की विचारधारा वाले वे तथा उनके कुछ अन्य मित्रों ने इलाहाबाद शहर में -’परिमल’- नामक एक साहित्यिक संस्था की स्थापना भी की थी जो उन दिनों  स्थानीय साहित्यिक लेखकों तथा कवियों का अनूठा केन्द्र बन गया था जहाँ लेख ,कहानी,कविता,काव्य-पाठ पर आलोचनात्मक चर्चाएँ हुआ करती थी ।हम हिन्दू बोर्डिंग वाले इसके सदस्य नहीं थे फिर भी उसकी गतिविधियों में रुचि लिया करते थे जो क्षेम जी से सुनने को मिल जाया करती थी ।पता नहीं अब वह -परिमल -संस्था है या नहीं । यह तो शायद कोई इलाहाबाद वाला ही बता सकता है ।यदि होगी भी तो मेरा अनुमान है कि उसके मूल संस्थापकों में से शायद ही कोई आज के दिन इस धरती पर होगा।मेरे विचार से ’ क्षेम’ जी ही उसकी अन्तिम कड़ी के रूप में थे।
उन दिनों इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में एक ;हिन्दी-समिति’ हुआ करती थी जिसका मंत्री -विभाग के छात्र-गण ही चुना करते थे। एक साल ,उक्त मंत्री पद के लिए श्री क्षेम  
 जी खड़े हो गए। उनके विरुद्ध एक कोई श्री महेन्द्र प्रताप जी खड़े थे । महेन्द्र प्रताप जी मेरे लिए नए नहीं थे । वाराणसी के जिस ’क्वीन्स कालेज’ से वो यहां आए थे उसी कालेज से मैं भी यहाँ आया था अत: वे वाराणसी के दिनों  से परिचित थे। लेकिन उनसे मेरा यह परिचय मात्र नमस्ते-बन्दगी तक ही सीमित था जब कि क्षेम जी से मेरा परिचय नमस्ते बन्दगी से बहुत आगे बढ़ कर मित्रता की दहलीज़ भी पार कर चुका था।जम कर दोनों तरफ़ से पैरवी हुई मगर क्षेम जी को सफलता हाथ न लगी । भावावेश में अपनी हार का जो कारण बताया वो सार्वजनिक करने योग्य नहीं है।मैने ढाढस बँधाया कि चुनावों में तो हार-जीत लगी ही रहती है ।आप तो रोज ही  यह देखते सुनते  रहते हैं ,इसके लिए इतना दुखी होने की क्या ज़रूरत है ? अगले साल फिर प्रयास किया जायेगा।लेकिन क्षेम जी एक कवि हॄदय  वाले अति भावुक व्यक्ति थे। उन्हे सहज होने में कई दिन लग गए। तब बाद में उन्होने विश्वविद्यालय आना शुरु किया।
हिन्दू बोर्डिंग हाउस एक विशाल छात्रावास है जिसमे लगभग 200 से अधिक कमरे हैं पर उनमें रहने वाले छात्रों की संख्या इस से कुछ अधिक ही थी।इसी छात्रावास में एक हाल भी था जिसमें 60-70
की संख्या में दर्शकगण आसानी से बैठ सकते थे । क्षेम जी व हम लोग सदा इसका उपयोग साहित्यिक गतिविधियों के लिए किया करते थे -कभी तुलसी जयन्ती ,कभी भारतेन्दु जयन्ती कभी कुछ कभी कुछ मनाया करते थे। कवि-गोष्ठियां तो आए दिन हुआ करती थी। विश्वविद्यालय कालीन आयु में ऐसा  होता  ही है कि हर कोई कवि नहीं तो ’काव्य-रसिक’ अवश्य बन जाया करता  है।
एक बार हम लोगों ने एक विराट कवि-सम्मेलन कराने की सोचा। छात्रावास के आस-पास काफी खुली भूमि थी। उसी भूखण्ड के किसी ओर आयोजित करने का निश्चय किया गया और छात्रावासों से सम्पर्क किया गया ।सभी ने यथा सम्भव सहयोग करने की स्वीकृति दे दी।सभापति पद के लिए ’निराला’ जी का नाम सबको पसन्द आया क्योंकि निराला जी का काव्य-पाठ हम लोगों ने कभी सुना नहीं था। औरों को तो हम लोग कई बार सुन चुके थे।विकल्प के तौर पर दूसरा नाम ’महादेवी वर्मा’ जी का तय हुआ था।पहले निराला जी से सम्पर्क साधने का निश्चय हुआ। निराला जी के साथ एक ख़तरा यह भी था कि पता नहीं कब उनका इरादा [मूड] बदल जाएऔर इन्कार कर जाएँ । इसलिए मूड भाँपने के लिए 2-दिन पहले श्री क्षेम जी और मैं छात्रावास से चला। उन दिनों ’निराला’ जी मुहल्ला दारागंज ]इलाहाबाद] में रहा करते थे।पता लगाते लगाते हम दोनों उनके आवास पर पहुँचे। एक पुराने मकान के दूसरी मंज़िल पर उनका निवास था। सीढियों के सहारे ऊपर गए ,कमरा भीतर से बन्द था। दरवाजे को धीरे से थपथपाया तो भीतर से आवाज़ आई-’रुको’।हम लोग रुक गए लेकिन कुछ देर तक भीतर कोई हरकत नहीं मालूम हुई तो फिर दस्तक दिया तो फिर वही आवाज़ आई-’रुको’। फिर हम लोग 3-4 मिनट तक रुके रहे। फिर वही निस्तब्धता मिली तो एक बार फिर हिम्मत कर के दरवाज़ा थपथपाया तो इस बार कपाट खुल गया। सामने एक लम्बी-चौड़ी बलिष्ठ मानव काया प्रकट हुई। जब देखा तो ख़याल आया कि लोगों ने इन्हें ’महाप्राण’ की संज्ञा यूँ ही नहीं दे रखी है।कमरे में पड़ी हुई एक जीर्ण चारपाई की तरफ़ इशारा करते हुए बैठने को कहा। इस पर मैने ’क्षेम’ जी का हाथ धीरे से दबाते हुए मैने कहा -बैठ जाइए नहीं तो पिटने का डर है।
 जब हम दोनो बैठ गए तो प्रश्न हुआ- कौन हो तुम लोग?
क्षेम जी ने उत्तर दिया-विश्वविद्यालय के हिन्दू बोर्डिंग हाउस से आए हैं
दूसरा प्रश्न हुआ -क्यों आए हो?
 हम लोगो ने बताया कि हम लोगो ने एक कवि-सम्मेलन का आयोजन किया है उसी के सभापतित्व के लिए आप को आमन्त्रित करने आए हैं।
निराला जी ने कहा -ज़माना हुआ मैने कवि-सम्मेलनों में आना जाना छोड़ दिया है ।सभापति बनने की तो बात ही नहीं । मैं नहीं आऊँगा ।तुम लोग किसी और को सभापति बना लो।
इस पर क्षेम जी ने दुबारा अनुरोध किया । दुबारा भी उसी आशय का उत्तर मिला। इसके बाद निराला जी असहज हो गए। कमरे में चहल कदमी करते हुए बड़बड़ाने लगे।कहने लगे.....
जानते हो तुम लोग कि जब गंगा में तैरते तैरते जवाहर लाल डूबने लगे तो किसने बचाया था ?.....मालूम है हिन्दी के प्रश्न पर वायसराय से झगड़ा किसने किया था...?
हमलोगो ने कवि जी की असहजता की अनेक बातें सुन रखी थीं आज प्रत्यक्ष देख भी लिया। थोड़ी देर बाद जब वह सहज हुए तो बोले -कह दिया न कि नहीं जाएँगे।
क्षेम जी ने अन्तिम  प्रयास के तौर पर, अन्तिम बार अनुरोध करते हुए कहा -हम लोग विद्यार्थी हैं आप के लड़के के समान है ,आप पिता तुल्य हैं ।लड़को का कहना मान लीजिए .....
इस पर महाकवि निराला जी ने कहा--लड़कों को भी चाहिए कि बाप का कहना मान लें
उन्हें अपने इरादे से हटते न देख हमलोग निराश हो कर छात्रावास लौट आए..।

[क्रमश:----शेष अगली कड़ी में\
[ मेरे स्मृति के पात्र : [अप्रकाशित संग्रह ] से


प्रस्तुतकर्ता
आनन्द.पाठक
09413395592 

रविवार, 24 अप्रैल 2016

She

🌹   She 🌹
One day,
         she was in My heart.
 And My
          heart was in Long dart

The dart,
           Was in love forest .
Like forest,

        She was just chaste .

In the Calm forest,

She was come like a breeze

Due to this slow wind,

   My soul was hounting,

Like flower seeker bees.
                   
                 🌹   G.S.Parmar

पिड़ा

पीड़ा

गरीबी  की गलियों मे,
                यह मन बहुत अकेला है |
रंग महल मे उनके,
               खुशीयों का मेला हैं |
दिन रैन श्रम कोल्हू मे पिसकर
           जीवन कण मैं  रचता हूँ |
शीत से हैं प्रीत मेरी कसकर,
ग्रीष्म सखा संग मै चलता हूँ |
जिंने की जद्दोजहद में यह तन,
हरदम साहूकार  तुफानो से खेला हैं |
गरीबी की गलियों में,
             यह मन बहुत अकेला हैं|
रंग महल मे उनके
         खुशियों का मेला हैं |
सेवक  बन जो सरकार चलाए,
मिल बैठ कर प्रेम भाव से,
करतल ध्वनि से वेतन  आकार बढ़ाए|
    क्या है उन्हें प्रेम मेरी पीड़ा से ?
अन्न का दाता मैं,मिटकर खुद,
तुमको जीवन देता हूँ |
देख दयालु (?) कभी उनको भी ,
दर्द जिनका चहुँ ओर  फैला हैं,
गरीबी की गलियों मे
यह मन बहुत अकेला हैं |
रंग महल मे उनके,
खुशियों  का मेला हैं |
आओ तुम्हें आज,
राज की बात बताता हूँ,
होली की बिसात ही क्या?
जब दिवाली भी खेतों मे,
काम करते मनाता हूँ |
रक्षा बंधन पर आँसूओं को अपने,
सावन की झड़ीयों से धो कर ,
  बहना को,प्रसन्न चेहरा दिखलाता हूँ |
दिल का दिया मेरा  
       रक्षा बंधन पर भी जलाता हूँ |
लगती जिंदगी अब तो
            बस एक झमेला है.
गरीबी की गलियों मे
           यह मन बहुत अकेला हैं,
रंग महल में उनके,
            खुशियों का मेला हैं |
   
                    जी. एस परमार
                 खानखेड़ी नीमच 

वह

          वह

खामोशी के सागर में,

              मुस्कान कंकड़ डाल |

खुशियों की लहरें,

             बना जाता है वह |

भुलाना चाहूँ, तो भी,

        भूल से याद आ जाता है वह |

दुनियाँ के दरिया मे,

        टुटी नैया पर सवार हूँ मै,

टुटी नैया मे,

  अहं की छोटी पतवार हूँ  मै.

     फिर भी  अहं को भूला कर मेरे,

सन्मार्ग मुझे दिखा जाता है वह |

भूलाना चाहूँ तो भी,

भूल से याद आ जाता है वह |

भूल तो जाउँ उसे पर,

कैसे भुलाउँ उपकार उसका |

समीर  उसकी, नीर  उसका |

मुफ्त मे, प्राण चेतना,

सबको दे जाता है वह.  |

             भूलाना चाहूँ तो भी,

भूलकर याद आ जाता है वह |
   
                जी. एस. परमार

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2016

हिसाब




माॅ एक -एक पैसे का हिसाब देती है
मेरे कमाई के खर्च का
और
मैं चिल्ला - चिल्ला कर हिसाब लेता हूॅ
उस माॅ से
जो नौ मास तक ढोई
रात भर गीले में सोई
मेरे हर दर्द पर चीखकर रोई
बिना किसी उफ आह के।

गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

...आओ बचाएं अपनी वसुंधरा?

हाल के कुछ साल, महीने और दिवस में नेपाल में आयी भूकंप त्रासदी, पाकिस्तान में बाढ़, जम्मू कश्मीर में जल प्रलय, जापान से लेकर अफगानिस्तान तक धरती के कंपने, इक्वाडोर में भूकंप जैसी भयावह खबरे अखबार की सुर्खियां रहीं। वर्तमान में लातूर का जल संकट, बुंदेलखंड और विदर्भ में सूखे के हाल से सभी परिचित हैं। अक्सर यह समाचार सुनने को मिलते हैं कि उत्तरी ध्रुव की ठोस बर्फ कई किलोमीटर तक पिघल गई है। सूर्य की पराबैगनी किरणों को पृथ्वी तक आने से रोकने वाली ओजोन परत में छेद हो गया है। इसके अलावा फिर भयंकर तूफान, सुनामी और भी कई प्राकृतिक आपदों की खबरें आप तक पहुँचती हैं, हमारे पृथ्वी ग्रह पर जो कुछ भी हो रहा है? इन सभी के लिए मानव ही जिम्मेदार हैं, जो आज ग्लोबल वार्मिग के रूप में हमारे सामने हैं। धरती रो रही है। निश्चय ही इसके लिए कोई दूसरा नहीं बल्कि हम ही दोषी हैं। भविष्य की चिंता से बेफिक्र हरे वृक्ष अधाधुंध काटे गए और यह क्रम वर्तमान में भी जारी है। इसका भयावह परिणाम भी दिखने लगा है। सूर्य की पराबैगनी किरणों को पृथ्वी तक आने से रोकने वाली ओजोन परत का इसी तरह से क्षरण होता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी से जीव-जन्तु व वनस्पति का अस्तिव ही समाप्त हो जाएगा। जीव-जन्तु अंधे हो जाएंगे। लोगों की त्वचा झुलसने लगेगी और त्वचा कैंसर रोगियों की संख्या बढ़ जाएगी। समुद्र का जलस्तर बढ़ने से तटवर्ती इलाके चपेट में आ जाएंगे। इसके लिए समय रहते सोचना होगा। हम अपनी वसुंधरा को कैसे बचाएं। सोचना होगा, मुकम्मल रणनीति तैयार करनी होगी। सरकार को भी एक कानून बनाना होगा। इस बार पृथ्वी दिवस पर आइए हम सभी मिलजुलकर जल, जंगल और जमीन को कैसे बचाएं, जीवन को कैसे सुरक्षित रखें। इस पर न केवल विचार करें बल्कि संकल्प लें कि हम पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचने देंगे।

धरती खो रही है अपना प्राकृतिक रूप
आज हमारी धरती अपना प्राकृतिक रूप खोती जा रही है। जहाँ देखों वहाँ कूड़े के ढेर व बेतरतीब फैले कचरे ने इसके सौंदर्य को नष्ट कर दिया है। विश्व में बढ़ती जनसंख्या तथा औद्योगीकरण एवं शहरीकरण में तेजी से वृध्दि के साथ-साथ ठोस अपशिष्ट पदार्थों द्वारा उत्पन्न पर्यावरण प्रदूषण की समस्या भी विकराल होती जा रही है। ठोस अपशिष्ट पदार्थों के समुचित निपटान के लिए पर्याप्त स्थान की आवश्यकता होती है। ठोस अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा में लगातार वृद्धि के कारण उत्पन्न उनके निपटान की समस्या न केवल औद्योगिक स्तर पर अत्यंत विकसित देशों के लिए ही नहीं वरन कई विकासशील देशों के लिए भी सिरदर्द बन गई है।  भारत में प्लास्टिक का उत्पादन व उपयोग बड़ी तेजी से बढ़ रहा है। औसतन प्रत्येक भारतीय के पास प्रतिवर्ष आधा किलो प्लास्टिक अपशिष्ट पदार्थ इकट्ठा हो जाता है। इसका अधिकांश भाग कूड़े के ढेर पर और इधर-उधर बिखर कर पर्यावरण प्रदूषण फैलाता है।

गुरुवार, 14 अप्रैल 2016

चन्द माहिया : क़िस्त 32

:1:

माना कि तमाशा है
कार-ए-जहाँ यूँ सब
फिर भी इक आशा है

:2:
दरपन तो दरपन है
झूट नहीं बोले
क्या बोल रहा मन है ?

:3:
छाई जो घटाएं हों
दिल क्यूँ ना बहके
सन्दल सी हवाएं हों

:4:
जितना देखा है फ़लक
उतना ही होगा
बातों में सच की झलक

:5:
 कैसा ये नशा ,किसका ?
कब देखा उस को ?
एहसास है बस जिसका

-आनन्द पाठक
09413395592

मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

Laxmirangam: दशा और दिशा

Laxmirangam: दशा और दिशा:                      दशा और दिशा                     मेरा पहला प्रकाशन ' दशा और दिशा ' ऊपर दिए लिंक पर उपलब्ध है. ई प...

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

आदमी, आदमी को ही लूटता है

आदमी आदमी को ही लूटता है
अपना पराया सभी को लूटता है
क्‍या खोया क्‍या पाया सोचता है
दुख भीतर ही तो कचोटता है
जीवन में खो जाते है जो जो
उन्‍ही को बार बार खोजता है
हार जीत का प्रश्‍न है गौण अब
जीवन जीवन को ही घसीटता है
दे दे विराम कह दे अलविदा
यही विचार अब जहर घोलता है
अजब है तुम्हारी ये बड़ी बड़ी बातें
विक्षिप्त कभी झूठ नहीं बोलता है

वो कितने परिंदों को...............गजल


वो  कितने परिंदों को नाहक उडा़या है
तब जाकर दरख़्त पे एक घर बनाया है

कहता है बड़ा सम्मान है उसका जमानें में
मगर वो  जानता है  कि डर  बनाया है

जी कर सब्र मिले मर के क़फ़न मिल जाए
यही सोच  के मैंने  अपना शहर बनाया है

मेरे ख़्वाबों को उड़ान देने के लिए देखो
मेरे  बेटे ने  कागजों  का पर  बनाया है

कभी  हाल ऐसा  तो हरगिज  नहीं होता
मुझे  ऐसा  किसी ने जी  भर  बनाया है

नहीं मानता रुतबा किसी जिंदा शख़्स का
रुतबा  तो  शहीदों  ने मर  कर बनाया है

वह  शख़्स  मेरे  फ़कीरी से भी जलता है
जो  मुझको  इस क़दर  अक्सर बनाया है

मंगलवार, 5 अप्रैल 2016

Laxmirangam: जागो मानव जागो

Laxmirangam: जागो मानव जागो: जागो मानव जागो... https://pollinatorlink.files.wordpress.com/2014/01/kingparrot_drinking_img_9558.jpg अब तक तो आप सब ने गौर क...

रविवार, 3 अप्रैल 2016

लोग - हाल में घटित हिंसात्मक घटनाओं और प्रदर्शनों पर

समय बहुत विकट है देखो, आवेशों में बहते लोग
कहीं लोग हैं उपद्रवियों से, कहीं सहमे डरते लोग

लोकतंत्र का तंत्र जो बिगड़े, लोक भी धीरज ना धरे
असहले हाथों में लेकर, जाने क्या-क्या करते लोग

रहनुमा है कौन यहां पर, तथ्यों का कुछ पता नहीं
शोर मचाते, आग लगाते, नींद में देखो चलते लोग

बहुत हुई अब नासमझी, कब हिंसा ने क्या पाया है
देखे हमने घायल होते, कभी देखे हमने मरते लोग

प्रेम, क्षमा, संवाद से देखो, रस्ते कई खुल जाते हैं
तब देश स्वर्ग बन जाता है, खुशहाली में रहते लोग