सोमवार, 19 अगस्त 2013

जब मैं था तो खुदा न था , "मैं " न होता तो खुदा होता , मिटाया मुझको होने ने , गर "मैं" न होता ,तो खुदा होता।

कबीरदास :कुछ चुनिन्दा दोहे भावार्थ सहित 

(१ )साहिब मेरा एक है ,दूजो कहा न जाय ,

      दूजो साहब जो कहूं। दूजो खड़ो रिझाय। 

एक में ही मेरी निष्ठा है। एक ही परमात्मा को मानता हूँ और वह है भी 

एक ही।उसी एक का प्रकाश सब में हैं। एक है तो सबका है सारी सृष्टि का 

स्वामी है।और सारी  सृष्टि उसकी है।  उसके दो रूप नहीं हो सकते। दो हुए 

फिर 

तो मानने वाले भी बंट  जायेंगे  . उसकी सत्ता भी बंट जायेगी। 

(२  )चाह गई चिंता गई ,मनवा बे -परवाह ,

     जा को कछु ना चाहिए ,वो ही साहिब रिझाय। 

ये जो संसार है यही हमारी चाहत का संसार है इसकी माया में ही हम फंसे 

रहते हैं। अपनी इच्छाओं के दास बनके रह गएँ हैं हम. जब ये इच्छाएं  पूरी 

नहीं होतीं 

तब दुःख होता है।ये सिलसिला चाहत का समाप्त ही नहीं होता है। कबीर 

कहते हैं इसीलिए हमने तो चाह करना ही छोड़ दिया है जो कुछ देगा वही 

ईशवर (साहिब ) देगा। क्योंकि चाहतें कब पूरी होतीं हैं। यही चाह दुःख का 

मूल कारण है।इसलिए इस चाह को ही छोड़ने पर अब कोई चिंता ही नहीं 

होती।सचमुच का शहंशाह तो वह है जो कुछ नहीं माँगता ये राजा 

(दुनियावी शहंशाह )तो रियाया से कुछ न कुछ माँगता ही रहता है।और 

इस 

इस राजा की इच्छाएं कभी खत्म नहीं होतीं।तो ये बे -फ़िक्र बादशाह भी 

कैसा 

होगा ?   वो तो मेरा एक साहिब ही है। 

(३ )माली आवत देखि के ,कलियाँ करें पुकार ,

      फूलि फूलि  सब चुन लै ,काल्हि हमारी बार। 

जीवन हमारा काल के अधीन हैं यही काल एक एक करके जो परिपक्व 

आयु के प्राणि होते हैं उन्हें ले जाता रहता  है। यही सब देखकर कलियाँ भी 

अपने 

मन का भय व्यक्त करने लगीं हैं। मनुष्य को सबसे बड़ा भय काल का ,

मृत्यु का ,मरण का ही होता है। जो कली फूल बन गई उसे तो माली ले 

गया। इस 

संसार में जो आता है वह जाता है। काल के प्रवाह में कल को हमारी भी बारी  

आ जायेगी।यही संसार का क्रम है और यही सोचकर कलियाँ उदास हैं। 

कबीर ने कलियों का मानवीकरण कर दिया है यहाँ।  

(४ )जा मरने से जग डरे ,मेरे मन आनंद ,

     जब मरिहूँ तब पाइहौं ,पूरण परमानंद। 

अगर इस शरीर को ही "मैं "समझोगे अपना "होना" Isness ,Being समझ 

लोगे फिर तो मरने से डर लगता रहेगा  . जब यह जान लोगे मैं उस 

परमात्मा का ही वंश हूँ तब शरीर के स्तर पर घटने वाली बातें भी तंग नहीं 

करेंगी। फिर चाहे मृत्यु भी आ जाए। संसार  तो  शरीर को ही नष्ट होने पर 

अपना नाश मान लेता है। कबीर कहतें हैं  "मैं आत्मा हूँ "इसलिए मेरे मन 

में कोई भय नहीं है।परमानंद है क्योंकि मृत्यु के बाद मैं आत्मा परम 

आत्मा  से मिल जाऊंगा।विराट सत्ता ईश्वर को पा जाऊंगा। मैं तो मरण 

को परम आत्मा की प्राप्ति का एक रास्ता ही मानता हूँ। क्योंकि बिना मरे 

तो परमात्मा को पाया नहीं जा सकता। शरीर का मोह है तो डर है। 

(५ )जब हम जग में पग धरयो ,जग हंसौ हम रोये ,

     ऐसी करनी कर चलो ,हम हँसे जग रोये। 

अब ऐसी करनी करो संसार तुम्हारे बिछुड़ने को लेकर रोये। उस परमात्मा 

का बनने का अंश लेकर तुम जाओगे ,कुछ परमार्थ करके जाओगे तो तुम 

हंसोगे  दुनिया यह कहके रोयेगी -कितना नि:स्वार्थी था। 

(६ )साहिब से सब होत है ,बंदे से कछु नाहिं ,

      राई से परबत करे ,परबत   राई माहिँ। 

इस संसार का प्रेरक और नियंता सिर्फ परमात्मा है। यहाँ जो कुछ होता है 

उसकी इच्छा से होता है। वही सर्व करता है। जो वह चाहता है वही होता है। 

अहंकार वश मनुष्य कहता है,मैं कर रहा हूँ। चलाने वाला तो वह परमात्मा 

ही है। चाहे तो सबसे सूक्ष्म को विराट बना दे। परबत को राई बनादे ,राई के 

समान सूक्ष्मतम कण को ,अणु को, विराट  बना दे। विपरीत ध्रुवों को 

मिलादे। एक दूसरे में परिणत कर दे विपरीत ध्रुवों को। 

राई में उतना आकार भर सकता है परमात्मा राई परबत लगे और परबत 

को सूक्ष्म क्वार्क बना सकता है ,गॉड पारटिकिल बना सकता है इतना 

छोटा 

जो दिखाई न दे। 

(७ )साधु  भूखा भाव का ,धन का भूखा नाय ,

      धन का भूखा जो फिरे सो तो साधु  नाय। 

साधयते इति साधु !जो मन की साधना करता है वह संसार के साधनों को 

छोड़ेगा। जो धन का भूखा है वह साधु नहीं है। 

साधु का अर्थ है संसार की आसक्ति और प्रवृत्ति को ,माया को छोड़कर जो 

ईश्वर में मन लगाता है वही साधु है। साधु के अन्दर तो भाव का संसार 

रहता है। वह तो जप का भूखा है। संसार की आसक्तियों से परे जाकर जो 

परमात्मा में ध्यान को टिकाये रहे वही साधु होता है। जहां भी उसे 

परमात्मा के नाम का धन मिलेगा वह उसे  लेगा। वरना वह साधु नहीं 

स्वादु हो जाएगा। जो संसार का एन्द्रिक स्वाद ले। साधु तो वह है जो 

संसार 

को अपने मन को साध लेता है।

(८ )प्रेम न बाड़ी उपजे ,प्रेम न हाट बिकाय ,

      राजा परजा जेहि रूचे  ,शीश धरै लै जाय।

प्रेम की खेती नहीं होती जैसे बीज बाडि में उपजाया जाता है। वहाँ तो बीज 

साधन होता है ,फसल साध्य हो जाती है। प्रेम तो अपने आप में साध्य है। 

उसका फसल की तरह लाभ नहीं कमाया जाता। अपने अहंकार को मारना 

ही प्रेम होता है।जो धन के बल पर अपने ऐश्वर्य का रूतबा दिखाकर दूसरों 

को फंसाता है वह प्रेम नहीं होता है। प्रेम को जो साधन मानते हैं वह प्रेम 

नहीं हो सकता।जो साधन है वह पदार्थ हो सकता है प्रेम नहीं। वह जो 

बाज़ार में मिलता है वह पदार्थ होता है प्रेम नहीं। जो प्रेम के तत्व को 

पहचानता है प्रेम क्या होता है वह अपने अहंकार को नष्ट करे।  तब उसके 

अन्दर प्रेम पैदा होगा। स्वयं का समर्पण अहंकार का त्याग ,स्वार्थ का 

सिर  

काटना ही प्रेम है।दूसरे के सुख का साधन बनो। औरों की सच्चे मन से 

सेवा 

हो ,कोई स्वार्थ न हो  . इसे प्राप्त करने के लिए करता होने का जो भाव है 

करनी का जो अहंकार है वह छोड़ना पड़ता है। 

जब मैं था तो खुदा न था ,

"मैं " न होता तो खुदा होता ,

मिटाया मुझको होने ने ,

गर "मैं" न होता ,तो खुदा होता। 

ॐ शान्ति    

  
  1. Madhuban Murli LIVE - 19/8/2013 (7.05am to 8.05am IST) - YouTube

    www.youtube.com/watch?v=Xcc16kXE2mE

    1 hour ago - Uploaded by Madhuban Murli Brahma Kumaris
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3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर कबीर वाणी आनंद आ गया ।

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  2. आनंदमय कबीर वाणी.....

    ----जा को कछु ना चाहिए , सोई साहन्साह

    ---- फूले फूले चुनि लिए ,काल्हि हमारी बार।

    --जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नाहि ....

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