रविवार, 25 अगस्त 2013

न माँ बँट जाए

चिल्लाओ मत इतना;
 कान के पर्दे फट जाए । 
हिन्दुस्तान वतन है अपना;
 आपस में न माँ बँट जाए ॥ 
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एक मुसलमा ,हिन्दू एक;
 एक हिंदुस्तान वहाँ है। 
एक गुलाबी बाग़ वह;
 नेक हर इन्सान जहाँ है ॥
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एक काफिर है काफी;
 जो बंदा न ईमान का  । 
एक दोस्त जो दुआ माँगे;
 प्यारा है भगवान् का ॥ 
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छोड़ दो उस पगडण्डी  को;
 जिसपे लाख हो काँटे  । 
कदम-कदम पे लहू ले ;
टुकडो में गाँव बाँटे  ॥ 
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आओ मिलकर साथ रहें;
 रहेगा अपना जहां सलामत । 
मत काटो अपने हाथों को ;
अपने हाथों अपनी किस्मत ॥ 
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        पोएम श्रीराम

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि का लिंक आज सोमवार (26-08-2013) को सुनो गुज़ारिश बाँकेबिहारी :चर्चामंच 1349में "मयंक का कोना" पर भी है!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. अर्थ और भाव सौन्दर्य पूर्ण बढ़िया रचना।

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  3. सुंदर प्रस्तुति । माँ न बांटें हम ।

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