रविवार, 4 अगस्त 2013

कलम की खुशबू

बहुत समय बाद कुछ लिखना चाहा 

तो कलम की जगह अपना मोबाइल उठाया

ज़िन्दगी की खिटपिट और मोबाइल की पिट पिट से तंग
बस कुछ शब्द ही जोड़ पाया

भौतिकता में उलझी ज़िन्दगी पे खुद से कई सवाल किए
और अपने ही सवालों के आगे खुद को निरुत्तर पाया

मन ढूँढ रहा था कलम की खुशबू 
और कोस रहा था मन ही मन तकनीक को भी

झुँझलाकर मैंने तैयारी कर ली सोने की
मोबाइल को लगाया साइलेंट मोड पर

पर ये मन लगा रहा अपने उधेड़बुन में
कि आखिर कलम की वो खुशबू कहाँ गयी ?

5 टिप्‍पणियां:

  1. तकनीकी युग के कुछ ऐसे प्रभाव भी होते हैं
    बेहद सुन्दर रचना

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  2. अच्छी उधेड़-बुन है.....

    कलम की खुशबू मौजूद है, मुलाहिजा किया जाए
    अंधी दौड़ में समय की कमी को न कोसा जाए
    लिखने के लिए कलम का ही प्रयोग हो श्याम -
    तकनीक का प्रयोग सिर्फ तकनीकी में किया जाए

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  3. कलम की खुश्बू ,विवेक भी गायब है।

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  4. सुन्दर है। ॐ शान्ति।

    कलम की खुश्बू ,विवेक दोनों गायब है।

    भाषा वर्तनी खाने लगी है

    मोबाइल की नै वर्तनी -

    व्याकरण भुलाने लगी है।

    शेक्स्पीयर की आत्मा चिल्लाने लगी।

    अंग्रेजी-

    अब हिंगलिश से भी आगे जाने लगी है

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