शनिवार, 21 सितंबर 2013

इन्द्रियों को वश में करने वाला व्यक्ति सारे विश्व को वश में कर सकता है और सभी उद्यमों में सफलता पा सकता है। मनोवेगों का पूर्ण नियंत्रण तो संभव नहीं है ,किन्तु वे ज्ञान द्वारा नियंत्रण में रखे जा सकते हैं।

श्रीमदभगवद गीता तीसरा अध्याय :श्लोक (३७ -४३ )

(३७ )श्रीभगवान् बोले -रजो गुण से उत्पन्न यह काम है ,यही क्रोध है ,कभी भी पूर्ण न होने वाले इस महापापी काम को ही तुम (आध्यात्मिक मार्ग का )शत्रु जानो। 

रजोगुण वांछित फलों की प्राप्ति के लिए घोरकर्म की ओर प्रेरित करने वाला मानसिक अ -संतुलन है। काम -समस्त ऐन्द्रिय और भौतिक सुखों की गहन कामना -रजोगुण से पैदा होता है। फल प्राप्ति में व्यवधान होने से फल प्राप्ति की भयावह कामना क्रोध में बदल जाती है। अत :भगवान् कहते हैं कि रजोगुण -प्रसूत काम और क्रोध दो शक्तिशाली शत्रु हैं ,जो व्यक्ति को पाप करने की ओर ले जाकर आत्मज्ञान -मानव- जीवन का परम ध्येय -के मार्ग से भटका सकते हैं। वस्तुत :व्यक्ति की इच्छा शक्ति के बावजूद काम वासनाएं उसे पाप कर्म में रत होने के लिए बाध्य करती हैं। 

कामनाओं का कभी भी पेट नहीं भरता जैसे घी से अग्नि तृप्त नहीं होती है वैसे ही कामनाओं से मनुष्य तृप्त नहीं होता है। काम  -क्रोध का बहुत बड़ा परिवार है। 

(३८ )जैसे धुयें से अग्नि और धूलि से दर्पण ढक जाता है तथा जेर (गर्भ थैली ,गर्भ -झिल्ली )से गर्भ ढका रहता है ,वैसे ही काम आत्मज्ञान को ढक देता है। 

(३९ )हे कौन्तेय (अर्जुन ),अग्नि के समान कभी तृप्त न होने वाले ,ज्ञानियों के नित्य शत्रु ,काम के द्वारा ज्ञान आच्छादित हो जाता है। काम और ब्रह्म ज्ञान एक दूसरे के शाश्वत शत्रु हैं। काम का विनाश ब्रह्म ज्ञान से ही हो सकता है।

मोह का जो विस्तृत खानदान है कुनबा है ये सब मिलकर हमारे विवेक को ढक देते हैं। जैसे चोर चोरी करने से पहले वहां अंधेरा कर देते हैं सब तार काट देते हैं टेलीफोन संपर्क काट देते हैं ये विकार ऐसे ही हमारी समझदारी को चादर उढ़ा  देते हैं। 

(४० )इन्द्रियाँ मन और बुद्धि काम के निवास स्थान (बंगले )कहे जाते हैं। यह काम इन्द्रियाँ ,मन और बुद्धि को अपने वश में करके ज्ञान को ढककर मनुष्य को भटका देता है। 

कामनाएं कहाँ रहती हैं इनका ठिकाना कहाँ है ?ये इन्द्रियों में छिपी रहती हैं। इसी तरह मन और बुद्धि में भी इनके छिपने के लिए बंगले बने हुए हैं।ये व्यक्ति को विवेकहीन कर देती हैं विवेक से हीन व्यक्ति राक्षस बन जाता है। जैसे हिरन्यकश्यपि और विवेक जागृत होने से ही राक्षस कुल उद्भव प्रहलाद भक्त बन जाता है। 

(४१ )इसलिए हे अर्जुन ,तुम पहले अपनी इन्द्रियों को वश में करके ,ज्ञान और विवेक के नाशक इस पापी कामरूपी शत्रु का विनाश करो। 

कामनाओं को तुम बल पूर्वक मार डालो। 

(४२ )इन्द्रियाँ शरीर से श्रेष्ठ कही जाती हैं ,इन्द्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है और आत्मा बुद्धि से भी अत्यंत श्रेष्ठ है। 

इन्द्रियों से मन ,मन से बुद्धि ,बुद्धि से ज्ञान और ज्ञान से  आत्मा श्रेष्ठ है। 

इन्द्रियाँ इतनी बलवान हैं इनके बारे में निश्चय पूर्वक  कुछ कहना बड़ा कठिन है। एक बार वेदव्यास अपने शिष्यों को सूत्र लिखवा रहे थे। वेदव्यास ने एक सूत्र अपने शिष्यों  से लिखने को कहा - 

"बुद्धिमान व्यक्ति को एकांत में अपनी पुत्री और सगी बहन  के साथ भी नहीं बैठना चाहिए। "

वेदव्यास के एक शिष्य जैमिनी ने यह सूत्र लिखने से साफ़ इनकार कर दिया वे अड़ गए। व्यास बोले ठीक  है जब अनुभव हो जाए तब लिख लेना। 

व्यास जी ने माया रची। जैमिनी अपनी कुटिया में अकेले सोये पड़े थे। घनघोर बारिश हो रही  थी। किसी ने कुण्डी खटखटाई। देखा जैमिनी  ने एक बहुत सुन्दर युवती भीगे वसन में दाखिल हो रही है कहते हुए क्या मैं यहाँ रात  बिता सकती हूँ। सुबह उठकर चली जाऊंगी। जैमिनी तो उस पर विमोहित हो चुके थे कहने लगे ठीक है। कुछ देर बाद उसे निहारते हुए बोले -मुझसे विवाह करोगी। युवती बोली विवाह तो मैं कर लूंगी पर मेरी एक शर्त है :

आप घोड़ा बनो मैं आपकी पीठ पे बैठूं आप मुझे घुमाओ सब जगह। जैमिनी बोले इसमें कौन मुश्किल बात है बैठ जाओ। युवती बैठ गई जैमिनी उसे घुमाने लगे तभी वेदव्यास प्रकट हुए -ये क्या हो रहा है ?

कुछ नहीं महाराज वह सूत्र लिखवाओ। 

भले इन्द्रियाँ बहुत बलवान हैं लेकिन चिंता मत करो इनसे शक्तिशाली मन है। मन से बुद्धि और बुद्धि से हमारी आत्मा। 

(४३ )इस प्रकार आत्मा को मन और बुद्धि से श्रेष्ठ जानकर ,(सेवा ,ध्यान ,पूजन आदि से की हुई शुद्ध )बुद्धि द्वारा मन को वश में करके ,हे महाबाहो ,तुम इस दुर्जेय कामरूपी शत्रु का विनाश करो।इस प्रकार काम को सभी कामनाओं को व्यक्ति अपने जीवन से निकालकर अपने जीवन को कामयाब करने के लिए अध्यात्म मार्ग पर आगे बढ़ सकता है। 

अनियंत्रित सांसारिक कामनाएं जीवन की सुन्दर आध्यात्मिक यात्रा को नष्ट कर देंगी। धर्म ग्रन्थ मन में उत्पन्न हुई कामनाओं को समुचित नियंत्रित रखने का मार्ग और साधन प्रदान करते हैं।शरीर की तुलना एक रथ से की जा सकती है ,जिसमें यात्री -स्वामी -भोक्ता स्वरूप जीवात्मा भगवान् कृष्ण के परमधाम की ओर आध्यात्मिक यात्रा कर रहा है। कर्तव्य और त्याग उस रथ के दो पहिये हैं  और भक्ति उसका धुरा है। सेवा उसका मार्ग है और दैवीगुण मील के पत्थर। धर्म ग्रन्थ अज्ञान के अँधेरे को दूर करने के लिए मार्ग दर्शक प्रकाश  -स्तम्भ (Light House )हैं। मन और पंचेन्द्रियाँ इस रथ के घोड़े हैं। ऐन्द्रिय भोग -पदार्थ मार्ग तट पर  उगे हरित तृण   हैं,राग द्वेष मार्ग के रोड़े हैं तथा काम ,क्रोध और लोभ लुटेरे हैं। मित्र और सम्बन्धी मार्ग में अस्थाई रूप से मिले सहयात्री हैं। बुद्धि इस रथ का सारथी है। यदि बुद्धि रुपी सारथी को ज्ञान और इच्छा शक्ति से पवित्र और शक्तिशाली नहीं बनाया गया ,तो बुद्धि मन को नियंत्रित न कर सकेगी और ऐन्द्रिय  तथा भौतिक सुखों की सशक्त कामनाएं मन को अपने नियंत्रण में कर लेंगी। मन और इन्द्रियाँ दुर्बल सारथी ,बुद्धि ,पर आक्रमण कर उसे अपने नियंत्रण में कर लेंगे और मुक्ति मार्ग से भटका कर वे जीवात्मा रुपी यात्री को आवागमन के गर्त में धकेल देंगे।  

यदि बुद्धि भलीभांति प्रशिक्षित है और आत्मज्ञान तथा विवेक की अग्नि में तपकर पावन हो चुकी है ,तो वह आध्यात्मिक साधना और वैराग्य रुपी दो लगामों और यम -नियम के कोडों से इन्द्रियों के अश्वों को नियंत्रण में रखने में समर्थ होगी। सारथी को सदा लगाम पूरी अपने हाथ में रखनी चाहिए ,नहीं तो इन्द्रियं के अश्व रथ को अज्ञान के गर्त में ले जायेंगे। अधिकाँश मोटरकार की दुर्घटनाएं चालक की क्षणिक असावधानी के कारण होती हैं। उसी तरह एक क्षण की असावधानी भी मनुष्य को मार्ग से विचलित कर सकती है। 

इन्द्रियों को वश में करने वाला व्यक्ति सारे विश्व को वश में कर सकता है और  सभी उद्यमों में सफलता पा सकता है। मनोवेगों का पूर्ण नियंत्रण तो संभव नहीं है ,किन्तु वे ज्ञान द्वारा नियंत्रण में रखे जा सकते हैं। 

इस प्रकार कर्म योग नामक तीसरा अध्याय सम्पन्न होता है। 

ॐ शान्ति  



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