शनिवार, 7 सितंबर 2013

श्रीमद्भगवतगीता तीसरा अध्याय कर्मयोग (श्लोक ६ -१० ) कर्मेंद्रियाणि संयम्य ,य आस्ते मनसा स्मरन , इन्द्रियार्थान विमूढात्मा ,मिथ्याचार : स उच्यते।

श्रीमद्भगवतगीता तीसरा अध्याय कर्मयोग (श्लोक ६ -१० )

कर्मेंद्रियाणि संयम्य ,य आस्ते मनसा स्मरन ,

इन्द्रियार्थान विमूढात्मा ,मिथ्याचार : स उच्यते। 

(६ )जो मंद बुद्धि मनुष्य इन्द्रियों को (प्रदर्शन के लिए )रोककर मन द्वारा विषयों का चिंतन करता रहता है ,वह मिथ्याचारी कहा जाता है। 



(७ )परन्तु हे अर्जुन ,जो मनुष्य बुद्धि द्वारा अपनी इन्द्रियों को वश में करके ,अनासक्त होकर ,कर्मेन्द्रियों द्वारा निष्काम कर्मयोग का आचरण करता है ,वही श्रेष्ठ है।  

(८ )तुम अपने कर्तव्य का पालन करो ,क्योंकि कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से शरीर का निर्वाह भी नहीं होगा। 

(९ )केवल अपने लिए कर्म करने से मनुष्य कर्म बंधन से बंध  जाता है; इसलिए हे अर्जुन ,कर्मफल की आसक्ति त्यागकर सेवाभाव से भलीभाँति अपने कर्तव्यकर्म  का पालन करो।

यज्ञ का अर्थ है त्याग ,नि :स्वार्थ सेवा ,निष्काम कर्म ,पुण्य कार्य ,दान ,देवों  के लिए दी गई हवि -हवन के माध्यम से -की गई पूजा आदि। 

(१० )सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने सृष्टि के आदि में यज्ञ (अर्थात नि :स्वार्थ सेवा )के साथ प्रजा का निर्माण कर कहा -"इस यज्ञ द्वारा तुम लोग वृद्धि प्राप्त करो और यह यज्ञ तुम लोगों को इष्ट फल देने वाला हो।" 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें