गुरुवार, 12 सितंबर 2013

Free will is necessary for love

प्रश्न :यदि परमात्मा ने हमें कर्म करने की स्वायत्तता न दी हुई होती ,हम उसे  प्रेम करें ही करें  वह  इस बात के  लिए भी हमें बाधित  कर सकता था। फिर माया का फंदा भी हमारे गिर्द न होता। आखिर परमात्मा ने माया रची ही क्यों और रच ही दी तो हमें दूसरा विकल्प परमात्मा को  भूलने का ) क्यों दिया ?

Free will is necessary for love 

उत्तर :प्रेम के लिए विकल्प ज़रूरी है चयन का। मशीन या फिर किसी माडल के साँचें टेम्पलेट को यह विकल्प उपलब्ध नहीं है। 

माया हमें विकल्प उपलब्ध कराती है। जब हम माया का तिरस्कार करते हैं तभी ईश्वर तत्व की प्राप्ति का विकल्प खुलता है। माया निठल्ले को ही पकड़ ती है । कभी कभी तो कच्चा भी चबा जाती है। माया और भक्ति दोनों स्त्रीलिंग हैं। एक नारी दूसरी नारी को नहीं रिझाती है। माया पकड़ ती 

ही उन्हें है जिन्हें ज्ञान का अहंकार हो जाता है जैसे रावण को हुआ था।

भगत का कुछ नहीं बिगाड़ पाती। प्रेम की प्रगाढ़ता भी कठिनतर विकल्प 

के उपलब्ध होने पर ही बढ़ती  है।  

Raman Maharishi was asked ,"Why did God create Maya ?He answered ,"To thicken the plot ."

माया ही जीव को ब्रह्म से प्रेम करना सिखलाती है। 

प्रश्न :मन को बुरा करने का उकसावा कौन देता है ?क्या ये काम माया करती है ?यदि ऐसा ही है तो ऐसा क्यों है?

उत्तर :बेशक भौतिक ऊर्जा(Material energy ),माया अनेकानेक  संसाधनों की ओर हमें  आकर्षित कर ,सुख भोग के रूप में उलझा कर परमात्मा  से विमुख कर देती है।लेकिन इसका डबल रोल है। जब हम इसके भुलावे में आकर इसे गले लगा लेते हैं हम दुखों को प्राप्त होते हैं। माया ही हमें दुःख देती है सजा के रूप में। हताशा के रूप में। और इस प्रकार (प्रकारांतर से )एक तरह से हमें परमात्मा को याद करने का मौक़ा भी देती है।  

माया परमात्मा की दासी है। भक्तिन है। जब सृष्टि एक दम से तमोप्रधान हो जाती है। माया गले से पकड़ के व्यक्ति को और डूबकी लगवाती है संसार रस में। इस तरह विनाश के शिखर तक सृष्टि को ले जाने में मदद करती है। तुलसी दास मानस में कहते हैं :

सो दासी रघुबीर की समुझें मिथ्या सोपि ,

छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउं पद रोपि। 

अगंद की तरह मैं (माया )पाँव रोप कर निश्चय पूर्वक कहती हूँ  -भले मुझे मिथ्या कहा समझा जाता है लेकिन मैं सेविका परम पुरुष की हूँ जब तक तुम उसकी भक्ति नहीं करोगे उस एक ही प्रीतम प्यारे से प्रेम नहीं करोगे मैं टस से मस नहीं होऊंगी। 

Maya is a servant of God ,and its service is to torment souls who are forgetful of Him .Hence ,Maya will only release us when we surrender to its Master ,Shree Krishna .

सन्दर्भ -सामिग्री :SPIRITUAL DIALECTICS -BY SWAMI MUKUNDANANDA @Copyright 2011,Radha Govind Dham ,XVII/3305 ,Ranjit Nagar ,New -Delhi -110-008
India 

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साथ में पढ़िए :

                                                      कबीर की एक मशहूर उलटवासी :भाव -सार 

पानी में मीन पियासी ,

मोहे सुन सुन आवत हांसी। 

जलथल सागर खूब नहावे ,

भटकत फिरे  उदासी। 

आतम ज्ञान निरो (बिना )नर भटके ,

कोई मथुरा कोई कासी ,

जैसे मृगा नाभि कस्तूरी ,

वन वन फिरे उदासी। 

जल बिच कमल ,कमल बिच कलियाँ ,

ता पर भंवर निवासी ,

सो मन वसि त्रै लोक भयो है ,

जती ,सती सन्यासी। 

जाको ध्यान धरै ,विधि हरिहर ,मुनिजन कहत अ -भासी ,

सो तेरे हरि मांहि बिराजे ,

परम पुरख अविनासी। 

हैं हांसी ,तोहि दूरि दिखावे ,दूर की बात निरासि ,

कहे कबीर सुनो भई साधो ,

गुरु बिन भरम  न जासि। 

सहज मिले अबिनासी। 

कबीर की इस उलटबासी में मीन आत्मा  का प्रतीक है जल संसार का। उसके सारे सुख साधनों वैभव का। कबीर कहते हैं संसार का रास्ता सुखों की ओर  नहीं जाता है। भटकाता है तृप्त नहीं करता है प्यास बढ़ाता  है।जब तक जीव को अपने स्वरूप (मैं आत्मा हूँ शरीर नहीं हूँ ये शरीर मेरा है मैं शरीर नहीं हूँ )का बोध नहीं होगा तीर्थ करने का फिर कोई फायदा नहीं है।मैं परमात्मा का ही वंश हूँ।वह ईश्वर तत्व  मुझ में भी  है)   सुख तो व्यक्ति के अन्दर है परमात्मा का भी उसी के हृदय में वास है। वह मथुरा  -काशी जैसे तीर्थों में उसे ढूंढ रहा है उससे कोई प्राप्ति नहीं होगी। शरीर की यात्रा है यह। आत्मा का परमात्मा से योग नहीं है। यह वैसे ही है जैसे तपती रेत  में  मृग सरोवर ढूंढता है जबकि परमात्मा की सुवास तो  उसकी  स्वयं की नाभि में विराजमान है।  

जैसे भंवरा कलियाँ के स्पर्श प्राप्त कर रहा है ,कलियाँ लेकिन कमल पर हैं और कमल स्वयं जल में है वैसे ही हमारा मन रुपी भंवरा स्पर्श की लालसा में कलियों से (संसार से )सुख प्राप्त करने की कोशिश कर रहा है जबकि कमल स्वयं संसार रुपी जल में है।संसार तो माया है। जब तक मन उस त्रिलोकी से नहीं लगेगा फिर चाहे यंत्र  साधना करने वाला  जती हो या सत्य और नियम का पालन करने वाला सती हो साधु हो कोई भी हो ,उसकी(पर -मात्मा की ) भक्ति के बिना फिर  सब बेकार है। 

जिसका ध्यान ब्रह्मा विष्णु महेश तीनों करते हैं वह अविनाशी ईश्वर तत्व  परमात्मा तेरे अन्दर निवास करता है मुनिजन ऐसा कहते हैं। दूर के ढोल सुहावने लगते हैं। यह संसार एक मृग मरीचिका की तरह है जहां तप्त रेत पर दूर से तिरछा देखने पर ताल तलैया का भ्रम पैदा होता है लेकिन वहां कुछ होता नहीं है। ईश्वर प्राप्ति के लिए गुरु का संग ज़रूरी है फिर परमात्मा सहज  ही मिल जाएगा।  क्योंकि वह सही मार्ग बतलायेगा।

ॐ शान्ति 


1 टिप्पणी:

  1. सुन्दर प्रस्तुति...!
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    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि का लिंक आज बृहस्पतिवार (12-09-2013) को चर्चा - 1366मे "मयंक का कोना" पर भी है!
    सादर...!
    आप सबको गणेशोत्सव की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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