सोमवार, 7 अप्रैल 2014

समाज विरोधी बौद्धिक :एक प्रतिक्रिया उल्लेखित सम्पादकीय पर

समाज विरोधी बौद्धिक :एक प्रतिक्रिया उल्लेखित 

सम्पादकीय पर 

पहली मरतबा तुरत न्याय मिला है इस देश में बलात्कारा 

को जिसने उसकी आत्मा को कुचला वह गैंग फांसी के फंदे 

का भागी बना है। हम  अभियोग लगाने वाले सरकारी 

अधिकारी (अभियोजक )शक्ति मिल्स प्रॉसिक्यूटर 

उज्जवल निकम की मुक्त कंठ से प्रशंशा करते हैं जिन्होंने 

बलात्कार को एक प्रकार की ह्त्या का दर्ज़ा दिया है। भले 

आदमी शरीर से मर जाए ,हौंसला तो न टूटे। बलात्कार 

बलात्कृत के हौसले को तोड़ता है। बौद्धिक चिंतक के रूप में 

सम्पादकीय लिखने वालों से हमारा नम्र निवेदन है एक 

पारिवारिक व्यक्ति बनके इस तरह की घटनाओं पे 

सम्पादकीय लिखा करें। क्या यह बौद्धिक भकुए तब भी 

ऐसा 

ही सम्पादकीय लिखेंगे जब ऐसा उनकी बहन बेटी बहु के 

साथ बिकुल ऐसा ही  सामूहिक दुष्कर्म होगा जैसा शक्ति 

मिल्स 

परिसर में उस निर्दोष फोटो पत्रकारा के साथ हुआ। 

अर्थ और काम से  सम्बन्धी अपराधों को लेकर समाज में 

दंड का 

विधान रहा आया है। जिन देशों में मृत्यु दण्ड का विधान 

समाप्त किया गया है वहाँ लोग फांसी के फंदे तक जाने से 

डरते हैं। 

यहाँ तो अपराधी हर किस्म के छुट्टे घूमते   हैं सबको 

राजनीतिक छाता प्राप्त है इसीलिए न चुनाव आयोग का डर 

है न फांसी के फंदे का। संवेदन हीन  होकर ये कथित बैद्धिक 

चिंतक सम्पादकीय लिखते हैं । भोक्ता का दर्द क्या होता है 

इससे ये कतई ना -वाकिफ हैं। भोक्ता के दर्द का इन्हें ज़रा 

भी इल्म हो तो थोड़ी संवेदना भी इनमें पैदा हो। ये तो अपने 

आपको किसी और लोक से अवतरित प्राणि मानते हैं। जब 

कि अपराध व्यक्ति के साथ घटित होता है। चेतना उसकी 

कुंठित होती है मरती बे -मौक़ा। 

किसी भी समाज की 

बौद्धिकता, नागर बोध सिविलिटी का दर्ज़ा इस बात से तय 

होता है वहाँ औरत कितनी सुरक्षित है। गैंग और माफिया के 

हिमायती क्या समझ पाएंगे इस दर्द को। बे -खौफ कहा जा 

सकता है भारतीय प्रजातंत्र में हर क़ानून टूटने के लिए बना 

है किसी को किसी का डर नहीं हैं। 

जब भी कोई पहल होती है ये बौद्धिक भकुए निकल आते हैं। 

चाहे मामला समलिंगी पुरुष -महिला वर्ग की हिमायत का 

हो या बलात्कारियों के गैंग का।जबकि इस देश में अपराध 

एक बड़ी युवा भीड़ का पेशा बनने लगा है यही वक्त है ऐसे 

फैसले नित होवें।  

भय बिन प्रीत न होत गुंसाईं  


Not executions but improved investigations and 

conviction rates will curb rapes

A Mumbai sessions court's judgment Friday, awarding capital punishment to three of four men found guilty of raping a 23-year-old photo journalist at the Shakti Mills complex last August, is bound to provoke a debate on the effectiveness of death penalty for perpetrators of sexual violence. The court's reasoning that death penalty was justified since the Mumbai gang-rapists were repeat offenders stands open to question, especially at a time when capital punishment is gradually becoming a thing of the past.

There is no doubt that rape is a heinous crime. But succumbing to populist sentiment over sending rapists to the gallows must give way to reason on whether the Shakti Mills gang-rape was among the rarest of rare cases and therefore deserving of maximum punishment. There is a tendency in the criminal justice system to conflate rape with voluntary sex, and murder with rape when in real life there are clear distinctions between all of these. Painting all of them with the same overly broad brush can give rise to effects that are the opposite of those intended, leading to further brutalisation and dehumanisation of society.

To equate rape to a "form of murder", as Shakti Mills prosecutor Ujjwal Nikam argues, is to see in the depraved act a destruction of life when the justice system must do everything in its power to encourage rape survivors to fearlessly fight back with all legal instruments at their disposal. But the judgment describes the barbarity as having "left a permanent mark" on the survivor, which is counter-productive when efforts should be made at the societal level to shift the stigma on to rapists.
Equating the punishment of rape and murder has the perverse effect of hurting chances of survival of the raped woman, since it skews incentives for rapists in favour of destroying the evidence of their heinous act. Rather than meting out extraordinary punishment for a few instances of a commonly committed crime, which is unsustainable across the board, the ends of justice as well as deterrence would be far better served by increased conviction rates along with differential punishments depending on the degree or grade of the crime.
Victim of violence. Focus on the eyes. High contrast. - stock photoPortrait of scared woman with tears. Violence concept - stock photoThe murderer and his victim - stock photo

http://www.shutterstock.com/s/rape/search.html

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