बुधवार, 21 मई 2014

रंग न तुम पर दुनियायी रंगों का—पथिक अनजाना---608 वीं




हर क्षण दुनिया के रंग व नजारे मैं बदलते यहाँ देखता हू
रहता हूं मैं भीड में यहाँ दुनिया की फिर भी अकेला हूं मैं
न पति न बेटा न कोई रिश्ता ही इस दुनिया में मेरे यारों
यहाँ की गैरत देख कर हैरत होती क्यों इतना अकेला हूं मैं
मौजूद अनेकों सगे –सबंधी ,प्रशंसक व ब्लाग के यार-चार हैं
अनजान दुनिया के पथिक तुम अनजान दुनिया में आये हो
रंग न तुम पर दुनियायी रंगों का चढे बदसूरत हो जावोगे
उठती जमी पर भंवरी चक्रों में फंसा जमाना कुछ न पावोगे
देखो रंग गर फिसले तो तुम पथिक अनजाना न कहलावोगे
न फंसों यहाँ तूफानों में जिन्दगी का सूरज डलते देखता हूं
पथिक अनजाना



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