शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

माहिया : क़िस्त 03


:1;

ख़ुद से न गिला होता
यूँ न भटकते हम
तू काश मिला होता

:2:

ऐसे न बनो बरहम
पहलू में भी चुप  !
ये कैसी सजा जानम !

:3:

इक छाँव बनी तो रही
घर के आँगन में
बरगद बूढ़ा ही सही

:4:
मिलने में मुहुरत क्या
जब चाहे आना
सायत की ज़रूरत क्या

:5:

रिश्तों को निभा देना
बर्फ़ जमी हो तो
कुछ धूप दिखा देना

-आनन्द.पाठक-
09413395592

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही अच्छी कणिकाएं, हाइकू स्वे भी श्रेष्ठ ! वधाई !

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (05-07-2014) को "बरसो रे मेघा बरसो" {चर्चामंच - 1665} पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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