शनिवार, 27 सितंबर 2014

सोचें जरा (तांका)


1. शरम हया
लड़की का श्रृंगार
लड़को का क्या
लोक मर्यादा नोचे
इसको कौन सोचे ।

2. नर नारी का
समता वाजिब है
रसोई घर
चैका करे पुरूष
दफ्तर नारी साजे ।
3. सोचें हैं कभी
रूपहले पर्दे में
नग्नतावाद
कैसे पसारे पांव
मूक दर्शक आप ।
4. कम कपड़े
कोई क्यो पहनते
हवा खाना हो
नंगे होकर बैठें
पागल के समान ।
5. खुली चुनौती
वासना को देते
खुले बदन
बजा रहें हैं ढोल
मर्यादा साधे मौन ।
-रमेशकुमार सिंह चौहान

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (28-09-2014) को "कुछ बोलती तस्वीरें" (चर्चा मंच 1750) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    शारदेय नवरात्रों की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. विभिन्न विषयों पर सारगर्भित कविता जो एक दूसरे से जुडी हैं। स्वयं शून्य

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