शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

एहसासों की प्यास .....

एक कल्पना है सच्चा प्यार
बस झूठा सपना है यार

दुनिया का रंग
जब उसमें छू जाता है
प्यार बेचारा बेरंग हो जाता है

रिश्तों की बू
जब इस में आने लगती है
इसकी रंगत मुरझाने लगती है

जिस्मानी रिश्तों की अगर तृष्णा होती है
तो स्वार्थ की गुंजाईश इसमें दबी होती है
इसिलिये एहसासों की प्यास दूषित होती है
बेचारी कुंठित रोती है सच्ची प्यास कहाँ होती है
                                                               .....इंतज़ार

9 टिप्‍पणियां:

  1. yashoda jee आभारी हूँ आप का मेरी रचना को स्थान देने के लिये ....मंगलकामनाएँ

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (06-12-2014) को "पता है ६ दिसंबर..." (चर्चा-1819) पर भी होगी।
    --
    सभी पाठकों को हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. शास्त्री जी सादर प्रणाम.... धन्यवाद् मेरी रचना को स्थान देने के लिये ...मंगलकामनाएँ

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  3. अहसास की प्यास शांत कभी नहीं होती, जैसे जैसे अहसास बढ़ता है वह और उग्र होती जाती है ,सुन्दर रचना

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