शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

एक ग़ज़ल : हुस्न उनका जल्वागर था...



 हुस्न उनका जल्वागर था, नूर था
 मैं कहाँ था ,बस वही थे, तूर था

 होश में आया न आया ,क्या पता 
 बाद उसके उम्र भर , मख़्मूर था

 एक परदा रोशनी का सामने 
 पास आकर भी मैं कितना दूर था

 एक लम्हे की सज़ा एक उम्र थी
 वो तुम्हारा कौन सा दस्तूर था

 अहल-ए-दुनिया का तमाशा देखने
 क्या यही मेरे लिए मंज़ूर था ?

 खाक में मिलना था वक़्त-ए-आखिरी
 किस लिए इन्सां यहाँ मग़रूर था ?

 राह-ए-उल्फ़त में हज़ारों मिट गये
 सिर्फ़ ’आनन’ ही नहीं मज़बूर था 

शब्दार्थ
तूर = उस पहाड़ का नाम जिस पर हज़रत मूसा का अल्लाह त’आला से बात हुई थी
मख़्मूर था = ख़ुमार में था ,नशें में था.होश में नहीं था


-आनन्द.पाठक-
09413395592

10 टिप्‍पणियां:

  1. आपको सूचित किया जा रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शनिवार (18-04-2015) को "कुछ फर्ज निभाना बाकी है" (चर्चा - 1949) पर भी होगी!
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. आ0 शास्त्री जी-उत्साह वर्धन के लिए आप का बहुत बहुत धन्यवाद-आनन्द.पाठक

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  2. हर शैर कीमती बहतरीन ग़ज़ल कही है।

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  3. उत्तर
    1. आ0 ओंकार जी-उत्साह वर्धन के लिए आप का बहुत बहुत धन्यवाद-आनन्द.पाठक

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  4. सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
    शुभकामनाएँ।
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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    1. आ0 सन्जू जी-उत्साह वर्धन के लिए आप का बहुत बहुत धन्यवाद-आनन्द.पाठक

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  5. उत्तर
    1. आ0 रचना जी-उत्साह वर्धन के लिए आप का बहुत बहुत धन्यवाद-आनन्द.पाठक

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  6. आ0 Emmanuel जी-उत्साह वर्धन के लिए आप का बहुत बहुत धन्यवाद-आनन्द.पाठक

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