शुक्रवार, 12 जून 2015

नारी की आशा

इन आँखोंं से हम किस तरह देंंखें सपने
ये दुनियांं ये जमाना ये लोग ये संंप्रदाय
ये समाज ये वातावरण और ये मेरे मांं बाप
सपने देखने से पहले ही
सपनोंं को अपने रूडियोंं की अंंधी चिमनी मेंं
क्रूरता के साथ झोक देते हैंं
फिर सपने सपने नहींं खाक मेंं तब्दील हो जाते हैंं
मैंं सोचती हूँ
इस बेदर्द संंसार मेंं कोई तो चमत्कार हो
कोई तो महात्मा अवतरित हो
जिसके कर कमलोंं से इतिहास रचा जाये
और सपनोंं को चिमनी मेंं
दफन होने से पहले बचाया जाये
यही चाह है मुुझे और मुझ जैसोंं का
वो ओहदा मीले जिसकी हकदार हैंं
मौका मिले बुझी आंंखोंं से
निर्भयता के साथ सपने देखने का
और उन्हे साकार करने का
परन्तु न जाने कब वो दिन वो छण आयेगा
खैर इसी आशा मेंं तो
हम नारी युगो युगो से दिन काटतींं आ रही हैंं
और अब भी ना जाने कितने दिन काटनेंं होंंगे
और कब तक आँसूंंओ से तर मुर्झाये चेहरे पर
खुशियोंं के फूल खिलेंंगे……………

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