इन आँखोंं से हम किस तरह देंंखें सपने
ये दुनियांं ये जमाना ये लोग ये संंप्रदाय
ये समाज ये वातावरण और ये मेरे मांं बाप
सपने देखने से पहले ही
सपनोंं को अपने रूडियोंं की अंंधी चिमनी मेंं
क्रूरता के साथ झोक देते हैंं
फिर सपने सपने नहींं खाक मेंं तब्दील हो जाते हैंं
मैंं सोचती हूँ
इस बेदर्द संंसार मेंं कोई तो चमत्कार हो
कोई तो महात्मा अवतरित हो
जिसके कर कमलोंं से इतिहास रचा जाये
और सपनोंं को चिमनी मेंं
दफन होने से पहले बचाया जाये
यही चाह है मुुझे और मुझ जैसोंं का
वो ओहदा मीले जिसकी हकदार हैंं
मौका मिले बुझी आंंखोंं से
निर्भयता के साथ सपने देखने का
और उन्हे साकार करने का
परन्तु न जाने कब वो दिन वो छण आयेगा
खैर इसी आशा मेंं तो
हम नारी युगो युगो से दिन काटतींं आ रही हैंं
और अब भी ना जाने कितने दिन काटनेंं होंंगे
और कब तक आँसूंंओ से तर मुर्झाये चेहरे पर
खुशियोंं के फूल खिलेंंगे……………
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