मंगलवार, 9 जून 2015

दिल को ऐसे ही सजा देता हूँ


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दिल को ऐसे ही सजा देता हूँ
उनके खतों को जला देता हूँ ।

इन्तखाब उनको पसंद आये कभी
उसको कागज़ से हटा देता हूँ ।


राज़-ए-दिल जानता हूँ मैं लेकिन
खुश रहे जहां में दुआ देता हूँ ।


आग जो दिल की कभी बुझने लगे
सूखे ज़ख्मों को हवा देता हूँ ।


आज फिर उनको दुआ दी मैंने
जिनकी हर बात भुला देता हूँ ।


वो ही मज़्मूं ख़त का याद आये
आग जब दिल की बुझा देता हूँ ।


अब ये दिल राख से आबाद हुआ,
मैं खुद खुदा को दुआ देता हूँ ।


________हर्ष महाजन ।

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