शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

एक व्यंग्य : अवसाद में हूँ...

अवसाद में हूँ...

जी हाँ, आजकल मैं अवसाद में हूँ । अवसाद में हूँ इस लिए नहीं कि कल बड़े बास ने डाँट पिला दी।  इस ठलुए निठलुए पर जब वह डाँट पिलाने का कोई असर नहीं देखते हैं तो  खुद ही अवसाद में चले जाते हैं। मैं अवसाद में इसलिए भी नही हूँ कि मैं रिटायर हो गया -ताड़ से गिरा खज़ूर पे अटका और श्रीमती जी की सेवा में लग गया और मटर [अभी सीजनल फ़ली यही है] छीलने में लग गया। अवसाद में इसलिए भी नहीं हूँ कि मुझे अपनी किसी बेटी की शादी करनी है ..भगवान ने पहले ही इस ’सुख’ से वंचित कर दिया।

जब से "असहिष्णुता" के नाम पर कुछ लोग "अवार्ड’  लौटाने लगे तो मैं अवसाद में आ गया। मेरे पास कोई ’अवार्ड’ नहीं है कि मैं भी लौटा आता सरकार को --यह ले अपनी लकुट कमरिया मेरौ काम न आयौ-। उन लोगों की अन्तरात्मा कभी कभी जगती है...बाक़ी समय सोती रहती है । जब जगती है तो अचानक ख़याल आता है अरे! मेरे निद्रा काल में इतना सब कुछ हो गया ...धिक्कार है इस निद्रा को। जमाना क्या कहेगा  ....साहित्यकार है ..बुद्धिजीवी हैं ...समाज के प्रहरी है... हमें जगे रहना है ..समाज को जगाए रहना है तो जगने का प्रमाण पत्र देना ही होगा...मुझे अपना ’अवार्ड’ लौटाना ही होगा ...
मैं जानता हूं वह सड़कों पर नही उतरेंगे..झण्डा नहीं उठायेंगे.....वह आन्दोलन नहीं करेंगे.....आन्दोलन के लिए युवा पीढ़ी है ...वह तो बस ’अवार्ड’ लौटायेंगे और  लौटाने के बाद  फिर सो जायेंगे ...फिर कभी जगने के लिए...
इसी बात का अवसाद है मुझे कि मेरे पास कोई सरकारी ’अवार्ड’ नहीं है कि मैं भी लौटा आता और अपने जगे होने का प्रमाण दे आता वरना दुनिया मुझे ’मुर्दा’ ही समझ्ती होगी...’असहिष्णु’ ही समझ रही होगी। कुछ ’अवार्ड’ है मेरे पास पर सरकारी नहीं हैं  ..नितान्त व्यक्तिगत है..श्रीमती जी ने दिये हैं बिना किसी खर्चे पानी के..। जैसे "निठ्ल्ले है आप "...कामचोर.. आलसी..’कलम-घिसुआ" अवार्ड [मेरे लेखन प्रतिभा से प्रभावित हो कर] वग़ैरह वग़ैरह। कुछ ’खिताब’ तो ऐसे हैं कि मैं यहां लिख नहीं सकता ..पर आप समझ सकते है। उस में से एक अवार्ड ये भी है -" क्या .....   की तरह मेरे पीछे पीछे घूमते है। रिक्त स्थान आप स्वयं भर लें अपनी सुविधानुसार। मैं कई बार ऐसे ’अवार्ड’ लौटाने के लिए श्रीमती जी को कहा ...मगर वह लेने को तैयार नहीं ...कहती हैं सही ’अवार्ड’ दिया है .रखिए अपने पास ....एक और दूँ क्या !!

बड़े लोगों की बात और है। वो ’अवार्ड’ पाते हैं तो तालियाँ बजती हैं ,,,और जब लौटाते हैं तो और बजती है..बड़े लोग ’गालियाँ’ भी देते हैं तो ’तालियाँ; बजती है । सही वक़्त पर सही निर्णय लेते है....सही दलील देते है....मानना न मानना आप पर छोड़ देते है। और मैं ?अगर मैं अवार्ड लौटाऊँ तो श्रीमती मेरी ही बजा देंगी।

कल शाम मुझे अवसाद में देख ,नुक्कड़ का भुलेटन पनवाड़ी से रहा न गया....." उस्ताद क्या बात है"? फिर कहीं मंच पर कोई ’शे’र पढ़ दिया क्या कि मुँह सूजा हुआ है?"

 भाई भुलेटन की नुक्कड़ पर पान की दुकान है ...भुलेटन पान दरीबा"..यहीं पर सुबह शाम मुलाकात होती है । एक बार मैं उस के किसी बब्बर शे’र का इस्लाह कर दिया था तभी से वो मुझे उस्ताद कहने लग गया और कभी कभी  गुरु-दक्षिणा में 1-2  गिलौरी पेश कर देता है। शायर तो वह भी ..फिर हम दोनों एक दूसरे को शे’र सुनाते रहतें है और दाद वाद देते रहते हैं ..वो मेरा पीठ खुजा देता है और मैं उसका जब कि वह अपने को ’मीर’ और मैं अपने को ’ग़ालिब’ समझने लगता हूँ...
"क्या बात है उस्ताद ...मुँह सूजा सूजा लगता है"---- भुलेटन भाई ने पूछा
" यार भुलेटन ! आजकल अवसाद में हूं"
" भाई ! ये ’अवसाद’ क्या होता ? ,,,,भुलेटन ने जिग्यासा प्रगट की
"तू नहीं समझेगा...तू तो बस पान लगा। बड़े लोगों के चिन्तन को अवसाद कहते हैं  ...लोग अपना अपना ’अवार्ड’ लौटा रहें है और मेरे पास कोई ’अवार्ड’ नहीं है कि मैं भी लौटा देता...बस इसी बात की चिन्ता यानी चिन्तन है "
" अरे उस्ताद बस ,इतनी सी बात । अरे कल ही आप को अवार्ड दिलवा देता हूँ वो भी बिना हर्रे-फिटकरी के"
"अरे ! तू और तेराअवार्ड ? यार भुलेटन मजाक न कर ... मैं अभी गहन चिन्तन में हूँ"

तरदामनी पे शेख हमारे न जाइयौ
दामन निचोड़ दूँ तो फ़रिश्ते वज़ू करें   -------पता नहीं भुलेटन भाई किस शायर का शे’र पढ़ गए...

खैर मैने पूछा -" अवार्ड क्या तेरी पान की गिलौरी है कि जिसको चाहे उसको दे दे?
"नहीं उस्ताद ’आथिन्टिकेटेड अवार्ड’ दिलवाऊँगा....’अखिल भारतीय पनवाड़ी संघ का कल्चरल सेक्रेटरी जो हूँ"
"अरे ये नुक्कड़ और ये तेरा अखिल भारतीय....!!"
अरे उस्ताद ! अब तो गली गली में अखिल भारतीय कवि सम्मेलन /मुशायरा होने लगा है ,,बैनर ही तो लगाना है खाली..बस 2-4 फोटू खिचवा देंगे....रमनथवा से माला-फूल चढ़वा देंगे आप पर...
फिर आप जो लिख कर देंगे वही ’प्रशस्ति-पत्र" पढ़वा देंगे...श्यम ललवा से .।.बस हो गया आप का अवार्ड ....फ़ेसबुक पर चढ़ा देना...मिल ही जायेंगे 100-50 वाह वाह करने वाले...फिर चाहे ये अवार्ड रखो या लौटाऒ कोई पर्क़ नहीं पड़ता...."  भुलेटन भाई ने अवार्ड का ’रहस्य’ और ’महत्व’ समझाया

-सौदा कोई बुरा नहीं था...सो अवार्ड ले ही लिया..."अखिल भारतीय पनवाड़ी संघ व्यंग्य सम्राट " का
सोचा कि अब वक़्त आ गया कि इसे ’फेसबुक’ पर चढ़ा दूं....
..देखा कि वहाँ तो पहले से ही ऐसे 50-60 "अवार्डी" हैं
सोचता हूँ कि फिर कही ’दंगा’ या कोई ’असहिष्णु’ हो तो  विरोध स्वरूप  मैं भी यह ’अवार्ड’ लौटा दूँ....यह ले अपनी लकुट कमरिया.......

-अस्तु

-आनन्द.पाठक
09413395592

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