गुरुवार, 9 जून 2016

एक ग़ज़ल : सपनों में लोकपाल था.....

एक ग़ैर रवायती ग़ज़ल



सपनों में ’लोकपाल’ था  मुठ्ठी में इन्क़लाब
’दिल्ली’ में जा के ’आप’ को क्या हो गया जनाब !

वादे किए थे आप ने ,जुमलों का क्या हुआ
अपने का छोड़ और का लेने लगे हिसाब  ?

कुछ आँकड़ों में ’आप, को जन्नत दिखाई दी
गुफ़्तार ’आप’ की हुआ करती  है लाजवाब

लौटे हैं हाथ में लिए बुझते हुए  चराग
निकले थे घर से लोग जो लाने को माहताब

चढ़ती नहीं है काठ की हांडी ये बार बार
कीचड़ उछालने से ही  होंगे न कामयाब

जो बात इब्तिदा में थी अब वो नहीं रही
वो धार अब नहीं है ,न तेवर ,न आब-ओ-ताब

गुमराह हो गया है  मेरा मीर-ए-कारवां
’आनन’ दिखा रहा है वो फिर भी हसीन ख़्वाब

-आनन्द.पाठक-
09413395592

शब्दार्थ
आप [A.A.P]   =Noun or pronoun जो आप समझ लें
गुफ़्तार = बातचीत
मीर-ए-कारवाँ  = कारवां का नेतृत्व करने वाला


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें