सोमवार, 20 जून 2016
बूंदे
बूंदे बस रही हैं मन में
तन को छूकर,
पीड़ा छलक रही है
बनकर बूंदे ऑखों में,
बूंदे सरक रही है पत्तों से
पत्तों में अटक - अटक कर,
बूंदे घुल रही हैं धरती में
अंबर से गिरकर,
बूंदे जा रही हैं जड़ में
जड़ से पत्तों तक
और पत्तों से
पुनः अंबर की गोदी में।
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