बुधवार, 21 सितंबर 2016

एक ग़ज़ल : निक़ाब-ए-रुख में....

ग़ज़ल : निक़ाब-ए-रुख में...


निक़ाब-ए-रुख में शरमाना, निगाहों का झुकाना क्या
ख़बर हो जाती है दिल को, दबे पाँवों  से आना क्या

अगर हो रूह में ख़ुशबू  तो ख़ुद ही फैल जाएगी
ज़माने से छुपाना क्या  ,तह-ए-दिल में  दबाना  क्या

अगर दिल से नहीं मिलता है दिल तो बात क्या होगी
दिखाने के लिए फिर हाथ का मिलना मिलाना क्या

क़यामत आती है दर पर ,झिझक कर लौट जाती है
तुम्हारा इस तरह चुपके से आना और जाना क्या

ख़ुदा कुछ तो अता कर दे मेरे मासूम दिलबर को
नहीं वो जानता होती वफ़ा क्या और निभाना क्या

तुम्हारी शोखियाँ क़ातिल अदाएं और भी क़ातिल
निगाह-ए-नाज़ की खंज़र से अब ख़ुद को बचाना क्या

क़सम खा कर भी न आना ,नहीं शिकवा गिला कोई
न आना था तो न आते ,ये झूटी कसमें खाना क्या

तुम्हारे इश्क़ ने मुझको कहीं का भी नहीं छोड़ा
हुआ है जाँ-ब-लब ’आनन’, तेरा आना न आना क्या

शब्दार्थ
ज़ाँ-ब-लब = मरणासन्न


-आनन्द.पाठक-
08800927181

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