रविवार, 22 जनवरी 2017

एक ग़ज़ल : यकीं होगा नहीं तुम को.....

एक ग़ज़ल : यकीं होगा नहीं तुम को....

यकीं होगा नहीं तुमको  मिरे तर्ज़-ए-बयाँ  से
जबीं का एक ही रिश्ता तुम्हारे आस्ताँ  से

फ़ना हो जाऊँगा जब राह-ए-उल्फ़त में तुम्हारी
ज़माना तुम को पहचानेगा  मेरी दास्ताँ  से

मिली मंज़िल नहीं मुझको भटकता रह गया हूं
बिछुड़ कर रह गया  हूँ  ज़िन्दगी के कारवाँ से

यूँ उम्र-ए-जाविदाँ  लेकर यहाँ पर कौन आया 
सभी को जाना होगा एक दिन तो इस जहाँ  से

चमन को है कहाँ फ़ुरसत कि होता ग़म में शामिल
बिना खिल कर ही रुख़सत हो रहा हूँ मैं यहाँ से

बनाया खाक से मुझको तो फिर क्यूँ बेनियाज़ी !
कभी देखा तो होता हाल-ए-’आनन’ आस्माँ  से

-आनन्द पाठक-
08800927181

 शब्दार्थ
तर्ज़-ए-बयाँ से = कहने के तर्रीक़े  से
जबीं = माथा/ सर/पेशानी
आस्तां = दहलीज /चौखट
उम्र-ए-ज़ाविदां = अमर /अनश्वर
बेनियाज़ी =उपेक्षा
हाल-ए-आनन = आप द्वारा सॄजित ये बन्दा [आनन] किस हाल में है । सवाल परवरदिगार से है

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (24-01-2017) को "होने लगे बबाल" (चर्चा अंक-2584) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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