शनिवार, 4 मार्च 2017

उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 25 [मुतक़ारिब की मुज़ाहिफ़ बह्र-3]

 उर्दू बह्र पर एक बातचीत : क़िस्त 25 [ मुतक़ारिब की मुज़ाहिफ़ बह्र -3]

Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है ]

पिछली क़िस्त में हम मुतक़ारिब की इन बहूर पर चर्चा कर चुके हैं

1- बहर-ए-मुतक़ारिब मुरब्ब: सालिम    [122---122] 
2- बहर-ए-मुतक़ारिब मुसद्दस सालिम  [122---122---122]
3-बहर-ए-मुतक़ारिब  मुसम्मन  सालिम [122---122---122---122]
और इन की मुज़ाइफ़ शकलें भी
 साथ ही
4- बहर-ए-मुतक़ारिब मुसद्दस महज़ूफ़    122 --122--12.
5-  बहर-ए-मुतक़ारिब  मुसम्मन महज़ूफ़ 122--122--122--12
6-  बहर-ए-मुतक़ारिब  मुसद्दस मक़्सूर      122--122--121
7-  बहर--ए-मुतक़ारिब मुसम्मन मक़सूर  122--122--122--121
8-  बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन असलम मक़्बूज़ मुख़्नीक़ सालिम अल आख़िर   22-122--22-122

और साथ ही बहर मुतक़ारिब में असलम और असरम और मक़बूज़ की भी चर्चा कर चुके हैं
आप को जान कर आश्चर्य होगा कि ज़िहाफ़ सलम और सरम के अमल से बरामद मुज़ाहिफ़ बहर पर ’तख़नीक़’ के अमल से 1,2 नहीं बल्कि 250 से भी ज़्यादा  विभिन्न रंगा-रंगी वज़न बरामद हो सकती है । यहां पर उन तमाम सूरतों पर बहस करना न ज़रूरी है न मुनासिब है। वरना मौज़ू से हम भटक जायेंगे। डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब ने अपनी किताब ’ मेराज-उल-अरूज़’ में बाक़ायदे इन तमाम मुतख़्नीक़ बहर की बरामदगी दिखाई भी है। सभी का यहाँ लिखना मुमकिन भी नहीं है।
आगे बढ़ने से एक दो बात पर चर्चा करना ज़रूरी समझता हूं।
’फ़ऊलुन [122] का  असरम है ------फ़अ लु   [ 2 1 ]
फ़ऊलुन [122 ] का असलम  है------फ़अ लुन [ 2 2 ]
फ़ऊलुन [122]  का मक़्बूज़ है   -----फ़ ऊ लु   [1 2 1 ]
फ़ऊलुन [122]  का मुसबीग़ है ------फ़ऊला न   [ 1221 ]
किसी क़िस्त में मैने एक बात कही थी -आप को याद हो कि न याद हो । मुझे याद है कुछ ज़रा ज़रा-----
वो बात थी कि 1 1 2 2 1 1 2 ---का जो गिर्दान या रुक्न समझने के लिए जो  अलामत हमने आप ने बना रखी है  वो शुरुआती दौर में   बहर सीखने/समझने के लिए   कुछ मदद तो करती है मगर गहराईयों में उतरने पर यह निज़ाम भी कारगर साबित नहीं होता कारण की उर्दू शायरी मे अर्कान का सारा खेल ;हरकत , साकिन , सबब ,वतद का है ।  हरकत और साकिन हर्फ़ को 1... 2 की अलामत से कभी कभी दिखाना मुश्किल होता है । उर्दू वाले तो फ़े’ल में ब सकून-ए-लाम ,ब सकून-ए-ऐन या लाम मय हरकत लिख कर काम चला लेते है मगर यह बात 1...  2.... 1 ....2  से नही दिखाई जा सकती कि फ़े’ल मे- लाम ब सकून हो या मय हरकत हो- दिखाते मगर हम -1- से ही है या रुक्न मे -ऐन - ब सकून हो या मय हरकत हो इसे भी दिखाते -1- से ही है
कहीं कहीं लाम अल आखिर को  -लु- [जैसे मफ़ऊलातु  मे  फ़ अलु में ] से दिखाना/लिखना पड़ता है कि लाम पर मैने ’पेश’ की हरकत लगा दी है महज इस लिए कि आप इस लाम को मय हरकत समझे। तो 1...2  मे क्या अलामत लगाए? उर्दू वाले तो रुक्न देख कर समझ जाते है कि रुक्न का आखिरी हर्फ़ मय हरकत है या ब सकून है? इस विषय में हमें सोचना चाहिए। कभी मौक़ा मिला तो इस पर भी विस्तार से चर्चा करेंगे।

1- मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ सालिम अल आखिर 
 [ फ़अ लु---फ़ऊलु---फ़ऊलु---फ़ऊलुन
   21------ 121 ------121 ----122
इन पर ’तख़नीक़ ’ की अमल से 7 और अलग अलग रंगा-रंगी बहर बरामद हो सकती  है। अर्थात कुल मिला कर 8-बहर । और ख़ूबी यह कि तमाम आठों वज़न आपस में एक दूसरे से बदले जा सकते है यानी बाहम मुबादिल है और बहर के वज़न में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता ।आप चाहे तो ख़ुद एक कोशिश कर सकते है
[ एक सुराग दे रहा हूं --- यहाँ -फ़-  ,-लु- और ऊ का अ’[ऐन] [दो रुक्न मिला कर एक साथ]  तीन मुतहर्रिक एक साथ आ गए तो इन पर  तख़नीक़ का अमल लग सकता है....]
 इन तमाम मुतख़्नीक़ बहर में एक बड़ी ही मक़्बूल और मानूस बहर  शामिल है जिसका मीर तक़ी ’मीर’ ने काफी प्रयोग किया है अपने अश’आर में । और वो वज़न है
22-22-22-22
2- मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ मुस्बीग़
 [ फ़अ लु---फ़ऊलु---फ़ऊलु--- फ़ऊलान ]
   21------ 121 ------121 ----1221  
वैसे ही इन पर ’तख़नीक़ ’ की अमल से 7 और अलग अलग रंगा-रंगी बहर बरामद हो सकती  है ।अर्थात कुल मिला कर 8-बहर और ख़ूबी यह कि तमाम आठों वज़न आपस में एक दूसरे से बदले जा सकते है यानी बाहम मुबादिल है और बहर के वज़न में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता ।
इस वज़न में भी एक बड़ी ही दिलकश वज़न बरामद होती है और वो वज़न है
22-22-22-221

3- मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ 
     फ़अ लु......फ़ऊलु.....फ़ऊलु.... फ़ अल
      21-----121------121----12
  इस बहर से भी तख़नीक़ की अमल से  7-और अलग अलग मुतख़्नीक़ बहर बरामद हो सकती है\अर्थात कुल मिला कर 8-बहर और ख़ूबी यह कि तमाम आठों वज़न आपस में एक दूसरे से बदले जा सकते है यानी बाहम मुबादिल है और बहर के वज़न में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता ।
4-- मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ मक़्सूर
     फ़अ लु......फ़ऊलु.....फ़ऊलु.... फ़ऊ लु
      21-----121------121----121
   इस बहर से भी तख़नीक़ के अमल से 7 और अलग अलग मुतख़्नीक़ बहर बरामद हो सकती है अर्थात कुल मिला कर 8-बहर और ख़ूबी यह कि तमाम आठों वज़न आपस में एक दूसरे से बदले जा सकते है यानी बाहम मुबादिल है और बहर के वज़न में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता ।
अब हम 16- रुक्नी बहर [मुसम्मन मुज़ाइफ़] बहर पर कुछ चर्चा कर लेते हैं
5-  मुतक़ारिब मुसम्मन असरम मक़्बूज़ महज़ूफ़ मुज़ाइफ़ [16-रुक्नी ] इसका बुनियादी रुक्न है [यानी एक मिसरा मे 8-रुक्न]
फ़अ लु.....फ़ऊ लु ---फ़ऊ लु -----फ़ऊ लु -----फ़ऊ लु ---फ़ऊ लु ---फ़ऊ लु ----फ़ अल
21-------121------121----------121--------121------121--------121-----12
और इस वज़न पर तख़्नीक़ के अमल से एक नही ,दो नही कुल 127 और वज़न [यानी कुल मिला कर 128 वज़न] बरामद हो सकती है ।और ख़ूबी यह कि तमाम वज़न आपस में एक दूसरे से बदले जा सकते है यानी बाहम मुबादिल है और बहर के वज़न में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता । डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब ने अपनी किताब -’मेराज-उल-अरूज़’ में अलग अलग कर के दिखाया भी है और आप भी दिखा सकते है
इसी 16-रुक्नी बहर से एक मुत्ख़्नीक़ बहर यह भी बरमद होते है  22-22-22--22-- 22-22-22-2  और यह बह्र मीर तक़ी मीर को इतनी प्रिय थी कि उन्होने इसका काफी प्रयोग किया है । शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ने इस को मीर का बह्र ही क़रार दे दिया ।बहरहाल मीर का आप ने वो मशहूर ग़ज़ल तो ज़रूर सुनी होगी

पत्ता पता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने वो ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है

-यह ग़ज़ल इसी मानूस बहर में है

मीरे का ही एक दूसरा शेर इसी बहर में सुनाते है

उल्टी हो गईं सब तदबीरं कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया

6-    मुतक़ारिब मुसम्मन  असरम मक़्बूज़ मक़्सूर मुज़ाइफ़ [16-रुक्नी] इसका बुनियादी रुक्न है [ यानी एक मिसरा मे 8-रुक्न]
फ़अ लु.....फ़ऊ लु ---फ़ऊ लु -----फ़ऊ लु -----फ़ऊ लु ---फ़ऊ लु ---फ़ऊ लु ----फ़ऊ लु
21-------121------121----------121--------121------121--------121-----121

और इस वज़न पर तख़्नीक़ के अमल से एक नही ,दो नही कुल 127 और वज़न जैसा ऊपर देख चुके हैं [यानी कुल मिला कर 128 वज़न] बरामद हो सकती है । डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब ने अपनी किताब -’मेराज-उल-अरूज़’ में अलग अलग कर के दिखाया भी है और आप भी दिखा सकते है
और चलते चलते
दो रुक्न 121-22 [यानी फ़ऊलु-फ़अ लुन] के मेल से  एक बड़ी ही दिलचस्प बहर भी बनती है

121-22 /121-22/121-22/121-22

देखने में तो एक मिसरा मे चार रुक्न दिखाई दे रहे है मगर दर हक़ीक़त यह 8-रुक्न है [यानी मुसम्मन मुज़ाइफ़] है  और इसका नाम  मुतक़ारिब मक़्बूज़ असलम मुसम्मन मुजाइफ़ है
इस बहर में शकील बदायूनी की एक ग़ज़ल का मतला और मक़ता पेश कर रहा हूँ  मुलाहिज़ा फ़र्माए

लतीफ़ पर्दो से थे नुमायां मकीं के जल्वे मकां से पहले
मुहब्बत आईना हो चुकी थी बुजूदे-बज़्म-ए-जहाँ से पहले

अज़ल से शायद लिखे हुए थे ’शकील’ क़िस्मत में जौर-ए-पैहम
खुली तो आंखे इस अन्जुमन में,नज़र मिली आस्मां से पहले

चलिए मतला की तक़्तीअ कर देता हूँ जिससे बात स्पष्ट हो जाये
  121-22      / 121 -22     / 12  1 - 2 2      / 1 2  1 -22       =121-22 /121-22//121-22/121-22
लतीफ़- पर्दो /से थे नु -मायां /मकीं के -जल् वे / मकां से -पहले
1  2   1-  2  2/1 2 1 -2  2   / 1 2 1-2   2/ 12  1-22 =121-22 /121-22//121-22/121-22
मु हब ब- ताई /ना हो चु-की थी/ बुजूद-बज़् मे/जहाँ से-पहले

एक बात ध्यान देने की है - उर्दू शायरी का मिजाज़ ऐसा है कि 16-रुक्नी बहर के mid मे यानी // एक ठहराव है और यह लाजिम भी है जिसे अरूज़ की भाषा में -’अरूज़ी वक़्फ़ा’ -कहते हैं
[ यहाँ  -से- ,-के-,-ना-  गो देखने में तो 2 का वज़न लग रहा है पर हम बहर की माँग पर इन सबकी मात्रा गिरा कर -1- की वज़न पर लेंगे और वैसे ही शे’र पढ़ेगे भी जो शायरी में जाइज़ है
’मुहब्बत आइना ’ में  अलिफ़ मद -यानी -आ- अपने सामने के लफ़्ज़ मुहब्बत के साथ मिल कर कर -’मुहब्बताइना’ की आवाज़ दे रही है जिसकी तक़्तीअ मु हब  ब ताई / ना [121-22] की वज़न पर ले लिया जिसको अरूज़ की भाषा में -अलिफ़ का वस्ल -कह्ते हैं यानी यहाँ अलिफ़ अपने सामने वाले हर्फ़ से वस्ल हो गया है [मिलन हो गया है] यही बात हिन्दी में भी है जिसे हम ’सन्धि’ कहते हैं।

मैं चाहूँगा कि मक़ता की तक़्तीअ आप खुद करें और मेरे कथनकी तस्दीक करें और गवाही दें
जब आप ने इतना कुछ बर्दास्त किया तो इस हक़ीर फ़क़ीर का भी  एक शे’र  बर्दास्त कर लें

बदल गई जो तेरी निगाहे    ,ग़ज़ल का उन्वा बदल गया है
जहाँ पे हर्फ़-ए-करम लिखा था ,वहीं पे हर्फ़-ए-सितम लिखा है

यहाँ पे एक बात ध्यान देने की है --जहाँ पे हर्फ़े-करम लिखा है - को अगर -जहाँ पर हर्फ़-ए-करम लिखा है - लिख दूँ तो क्या फ़र्क़ पड़ेगा ? यक़ीनन भाव और अर्थ में तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा और बहुत से लोगो को पता भी नहीं चलेगा इस में कमी क्या है
लेकिन अरूज़ दाँ तुरन्त पकड़ लेंगे । अब तो आप ने भी पकड़ लिया होगा अगर आप ने इतना कुछ पढ़ लिया है तो
पे-और-पर- में वज़न का फ़र्क आ जायेगा और मिसरा बे-बह्र हो जायेगा। क्यो?
तक़्तीअ में जहाँ -पे-आ रहा है वहाँ -1- वज़न की माँग है -पे की मात्रा तो गिरा सकते है पर -’पर’-[2] का वज़्न रखता है और इस में -र- गिराने की सुविधा नहीं है

नौ-मश्क़ शायर को इन बारीकियों पर ध्यान देना चाहिए वरना तो ’फ़ेस-बुक’ पर कुछ भी चस्पा कर दीजिये क्या फ़र्क़ पड़ता है 100-50 तो ’लाइक’ और वाह वाह करने वाले तो हमेशा तैयार रहते हैं

चलते चले हिन्दी फ़िल्म-" दो बदन’ का एक गाना सुनाते है आप ने भी सुना होगा जिसमे मनोज कुमार जीऔर आशा पारीख जी थी । लिन्क नीचे दे दिया हूँ ।यू ट्यूब पर उपलब्ध है सुनिए और लुत्फ़ अन्दोज़ होइए [आनन्द उठाइए] बहुत ही मार्मिक और दिलकश गाना है- और बताइएगा कि यह गाना किस ’बहर’ में है ।अगर आप को पसन्द आए तो इसी बहर में कोई अपना एक मिसरा भी गुनगुना सकते है

नसीब में जिसको जो लिखा था , वो तेरी महफ़िल में काम आया
किसी के हिस्से में प्यास आई ,किसी के हिस्से में जाम आया

मैं इक फ़साना हूँ बेकसी का ,ये हाल है मेरी ज़िन्दगी का
न हुस्न ही मुझको रास आया ,न इश्क़ ही मेरे काम आया
https://www.youtube.com/watch?v=mXQqmU4ds54

ख़ुदा ख़ुदा कर के बहर-ए-मुतक़ारिब की मानूस और राइज़ बहूर का बयान खत्म हुआ

मुझे उमीद है कि मुतक़ारिब बहर से बाबस्ता कुछ हद तक मैं अपनी बात कह सका हूँ । बाक़ी आप की टिप्पणी का इन्तज़ार रहेगा

--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....

एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात  और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान  कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब  सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब  , अजीज  दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब  का तह-ए-दिल  से मम्नून-ओ-शुक्र गुज़ार हूँ जिनकी किताबों से  कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर इतनी  बिसात कहाँ  औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में  मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस  आलिम साहिबान  के अरूज़ पर किए गए कामों का हिन्दी तर्जुमा समझिए........

[नोट् :- पिछले अक़सात  [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर  भी देख सकते हैं 

www.urdu-se-hindi.blogspot.com
or
www.urdusehindi.blogspot.com
-आनन्द.पाठक-
0880092 7181



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