सोमवार, 10 जुलाई 2017

एक ग़ैर रवायती ग़ज़ल : कहने को कह रहा है------

एक  ग़ैर रवायती ग़ज़ल : कहने को कह रहा है-----

कहने को कह रहा है कि वो बेकसूर है
लेकिन कहीं तो दाल में काला ज़रूर है

लाया "समाजवाद" ग़रीबो  से छीन कर 
बेटी -दमाद ,भाई -भतीजों  पे नूर है

काली कमाई है नही, सब ’दान’ में मिला
मज़लूम का मसीहा है साहिब हुज़ूर है

ऐसा  धुँआ उठा कि कहीं कुछ नहीं दिखे
वो दूध का धुला है -बताता  ज़रूर  है

’कुर्सी ’ दिखी  उसूल सभी  फ़ाख़्ता हुए
ठोकर लगा ईमान किया चूर चूर  है

सत्ता का ये नशा है कि सर चढ़ के बोलता
जिसको भी देखिये वो सर-ए-पुर-ग़रूर है

ये रहनुमा है क़ौम के क़ीमत वसूलते
’आनन’ फ़रेब-ए-रहनुमा पे क्यों सबूर है ?

-आनन्द.पाठक-
शब्दार्थ -
सबूर = सब्र करने वाला/धैर्यवान
सर-ए-पुर ग़रूर =घमंडी/अहंकारी

3 टिप्‍पणियां:

  1. दिनांक 11/07/2017 को...
    आप की रचना का लिंक होगा...
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी इस चर्चा में सादर आमंत्रित हैं...
    आप की प्रतीक्षा रहेगी...

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  2. जनता के विश्वास से हासिल सत्ता जब "अपना पेट हाउ मैं न देहों काऊ" की कहावत को चरितार्थ करती है तब भी जनता भ्रम में रहती है। भ्रष्टाचार के मामलों में राजनैतिक व्यक्तियों को सज़ा न मिल पाना एक बिडम्बना ही है. सामयिक, सटीक रचना.

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  3. जनता के विश्वास से हासिल सत्ता जब "अपना पेट हाउ मैं न देहों काऊ" की कहावत को चरितार्थ करती है तब भी जनता भ्रम में रहती है। भ्रष्टाचार के मामलों में राजनैतिक व्यक्तियों को सज़ा न मिल पाना एक बिडम्बना ही है. सामयिक, सटीक रचना.

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