रविवार, 14 अक्टूबर 2018

दर्द का समंदर

जब टूटता है दिल

धोखे फरेब से

अविश्वास और संदेह से

नफरतों के खेल से

तो लहराता है दर्द का समंदर

रह जाते हैं हतप्रभ

अवाक् इंसानों के रूप से

सीधी सरल निष्कपट जिन्दगी

पड़ जाती असमंजस में

बहुरूपियों की दुनिया फिर

रास नहीं आती

उठती हैं अबूझ प्रश्नों की लहरें

आता है ज्वार फिर दिल के समंदर में

भटकता है जीवन

तलाशते किनारा

जीवन की नैया को

नहीं मिलता सहारा

हर और यही मंजर है

दिल में चुभता कोई खंजर है

मरती हुई इंसानियत से

दिल जार जार रोता है

ऐसे भी भला कोई

इंसानियत खोता है

जब उठता दर्द का समंदर

हर मंजर याद आता है

डूबती नैया को कहां

साहिल नजर आता है!!!

(अभिलाषा चौहान)



15 टिप्‍पणियां:

  1. सादर आभार आपका यशोदा जी 🙏 शुभ प्रभात

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-10-2018) को "सब के सब चुप हैं" (चर्चा अंक-3126) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. सादर आभार आपका आदरणीय 🙏 मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिए 🙏

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  4. प्रिय अभिलाषा जी- संयोगवश आज आपकी रचना तक पहुंची और आपके परिचय तक भी | आपके बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा |रचना बहुत अच्छी है | जीवन का गहन दर्शन लिए | हार्दिक बधाई |

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  5. समंदर के लहरों की तरह निरंतर बहती सी रचना अति सुंदर शुभकामनाएं अभिलाषा जी

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    1. स्नेहसिक्त प्रतिक्रिया के लिए आपका सादर आभार
      सुप्रिया जी

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  6. वाह!!!
    उम्दा अभिलाषा जी भावों को बहुत सुंदरता से पेश किया आपने।

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  7. स्नेहसिक्त प्रतिक्रिया के लिए आपका सादर आभार
    कुसुम दी 🙏

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  8. बहुत सुन्दर रचना अभिलाषा जी ...धोखे और फरेब से दिल जब टूटता है,सच वह तड़प दर्द के समन्दर सी ही होती है...लाजवाब भावाभिव्यक्ति..

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