बुधवार, 27 मार्च 2019

एक व्यंग्य : हिन्दी-सेवा उर्फ़ फ़ेसबुक- सेवा

एक व्यंग्य : हिन्दी सेवा उर्फ़ फ़ेसबुक सेवा

- भाई साहब ! सोचता हूँ कि अब मैं भी कुछ हिन्दी की सेवा कर लूँ।" -मिश्रा जी ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा
-" क्यों ? अब कितनी सेवा करोगे हिन्दी की ? सरकारी नौकरी में 30-साल तक ’हिन्दी-पखवारा" में हिन्दी की सेवा ही तो की है ।हर साल बड़े साहब की ’स्तुति-गान ’ करते रहे और बजट लेते रहे । आप उन्हें ’शाल-श्रीफल" से सम्मानित करते रहे, उद्घाटन के लिए चाँदी की तश्तरी, कैंची लाते रहे और वो लेते रहे । कितना मनोयोग से शुद्ध संस्कृत निष्ठ शब्दों से आप उनका स्वागत भाषण लिखते थे ।हिन्दी की उपल्ब्धियाँ गिनाते थे ,हिन्दी कैसे आगे बढ़े, रास्ते बतलाते थे। पूरा विभाग हिन्दीमय हो जाता था उन दिनों । आप ने विभागीय हिन्दी मैगज़ीन का सम्पादन किया,स्मारिका छपवाई ,मुद्रक-प्रकाशक से दान-दक्षिणा ली।अपनो को रेवड़िया बाँटी । बड़े साहब की मिसेज को वरिष्ठ कवयित्री बताया । भाई मिश्रा जी ! अब हिन्दी की कितनी सेवा करोगे?
मिश्रा जी का रिटायर्मेन्ट के बाद 30 साल का ’ हिन्दी-अधिकारी’ का दर्द छलक आया --" एक हिन्दी अधिकारी का दर्द तुम क्या समझ सकोगे आनन्द बाबू ! जाके पैर न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई। हिन्दी अधिकारी का दर्द,किसी हिन्दी अधिकारी से पूछो, बुद्धिनाथ मिश्र जी से पूछो-

पीर बवर्ची भिश्ती खर हैं ,कहने को हम भी अफ़सर हैं
सौ सौ प्रश्नों की बौछारें,एक अकेले हम उत्तर है
इसके आगे, उसके आगे,दफ़्तर में जिस तिस के आगे
क़दमताल करते रहने को ,आदेशित हैं हमी अभागे
तन कर खड़ा नहीं हो पाए,सजदे में कट गई उमर है
पीर बवर्ची भिश्ती खर हैं-----


अब रिटायर हो गया हूँ ,सेवा निवृत हो गया हूँ,मुक्त हो गया हूँ सरकारी झंझटों से ,कलम आज़ाद हो गई है । सोच रहा हूँ अब कुछ मुक्त लेखनी से हिन्दी की मुक्त सेवा ही कर लूँ --माँ भारती बुला रही है -हिन्दी मुझे पुकार रही है।
" हिन्दी की ही सेवा क्यों ?"-मैने अपनी जिज्ञासा का समाधान किया-" सेवा-निवॄत के पश्चात तो और भी बहुत सी चीज़ें है सेवा करने के लिए --समाजसेवा--गो सेवा--जन सेवा--पर्यावरण सेवा---कार सेवा -मन्दिर सेवा--। बहुत से अधिकारी यही सब करते है रिटायर्मेन्ट के बाद और ’फोटू’ खिंचवाते रहते है ’फ़ेसबुक’ पर चढ़ाते रहते है --सेवा की सेवा--प्रचार का प्रचार ।
"-भई पाठक जी ! जन सेवा करने निकला था पर किसी पार्टी ने चुनाव का टिकट ही नहीं दिया तो हम जन सेवा कैसे करते? आप ही बताइए । पर्यावरण सेवा करने निकला तो कमेटी वालों ने ’एक पेड़ में बारह हाथ" लगा दिए । फोटू में तो सबके चेहरे खिले खिले थे बस पेड़ ही ’मुरझा’ गया था--और उसमें भी मेरा चेहरा कट गया था -सो पर्यावरण की सेवा छोड़ दी।
-’तो गो सेवा ही कर लेते’
-वो भी किया ।

घर से है गोशाला बहुत दूर चलो यूँ कर ले
सड़क पे किसी गाय को घास खिलाया जाए

मगर आने जाने के लफ़ड़े से अच्छा है कि हिन्दी की ही सेवा की जाए। घर में बैठे रहो और कुछ अल्लम गल्लम अगड़म-बगड़म फ़ेसबुक पे रोज़ रोज़ चिपकाते रहो। न हर्रे लगे न फिटकरी और रंग बने चोखा।
मैने कहा -’भाई मिश्रा जी !बहुत से लोग हैं हिन्दी की सेवा करने के लिए आजकल । फ़ेसबुक पर ,इन्टरनेट पर,व्हाट्स अप पर ,मंच पर ,ब्लाग पर हर दूसरा व्यक्ति ’सेवा ’ कर रहा है हिन्दी का --आप उसमे और क्या कर लोगे?
मिश्रा जी -’भाई साहब !आप के साथ यही ’प्रोब्लम’ है --प्रथम ग्रासे मच्छिका पात : -कर देते हों। आप जैसे लोगों के कारण ही, हिन्दी का स्तर दिन-प्रति दिन नीचे गिरता जा रहा है--भाषा का स्तर नहीं --वर्तनी का ख़याल नहीं --भाव किधर भाग रहा है -ध्यान नहीं ,बस फोटू पर फोटू लगाए जा रहे हैं लोग। यहाँ सम्मानित हुए--वहाँ सम्मानित हुए। यहाँ छपे--वहाँ छपे । यह प्रमाण पत्र --वह प्रमाण पत्र । इस मंच की अध्यक्षता की--उस मंच की अध्यक्षता की। यही सब है हिन्दी सेवा के नाम पर---
--तो आप क्या कर लोगे ?
---मैं संघर्ष करूँगा -आन्दोलन करूँगा --ज्योति जलाऊँगा----हिन्दी भाषा का विकास करूँगा ---स्तर ऊँचा करूँगा -लोगों को अपने साथ जोडूँगा -- ।फोटू खिंचवाऊँगा-- फोटू लगाऊँगा--
--कैसे?
-- ’फ़ेसबुक पर एक ग्रुप बनाऊँगा--
---फ़ेसबुक ही क्यों?
---उस में पैसा नहीं लगता -- और ’एडमिनिस्ट्रेटर बनूँगा ’फ़्री’ में सो अलग से ।
--अच्छा ’जब तोप का मुक़ाबिल हो ,अख़बार निकालो’-’मंच पे ही कुछ जुगाड़ लगा लो । मगर एड्मिनिस्ट्रेटर’ ही क्यों ?
--यार मज़े हैं -एड्मिनिस्ट्रेटर-बनने में --जब चाहे किसी को जोड़ लो ग्रुप में ,जब चाहे किसी को लतिया दो ग्रुप से -धकिया दो मंच से-अहम तुष्टी होती रहती है -और मुफ़्त में ब्लाग "प्रबन्धक" बनने का सुख अलग से --साहित्यकार होने का सुख भी मिलता रहता है।जिसको चाहो ’वरिष्ठ साहित्यकार- मूर्धन्य साहित्यकार ---हिन्दी के सशक्त हस्ताक्षर -- -राष्ट्र कवि -बता दो ।-कौन पूछता है-?--जिसको चाहो ’अज़ीमुश्शान शायर’- क़रार कर दो-- तगमा बाँटते चलो- ।-बुला बुला कर सम्मानित करूँगा- शाल उढ़ा दो ---दो चार दस पैसे तो बच ही जायेंगे ।
--आप कौन होते हैं ’रेवड़ी बाँटने वाले" ?-मैने विरोध किया
---भाई साहब ! हम न बाँटेंगे ,तो वो खुद ही बाँट लेंगे---शायर अमुक फ़लानवी--- कवयित्री ढेकानवी-- वरिष्ठ कवि अलानवी----कौन है रोकने वाला ? अब तो लोग अपने प्रोफ़ाइल में के पेशा/व्यवसाय कालम मे लिखते है कवि --शायर--साहित्यकार --सब ’स्वयंभू" के "स्वयंभू"। मानो कविता शायरी साधना न हो कर पेशा हो गई ,धंधा हो गई---

-एक बात कहूँ मिश्रा जी ?एक सुझाव दूँ ?
--हाँ हाँ ज़रूर कहें - मिश्रा जी ने चहकते हुए कहा
-"आप कुछ भी न लिखे तो हिन्दी की यही "सबसे बड़ी सेवा" होगी।

मिश्रा जी मुँह बनाते हुए, उठ कर चल दिए ।
अस्तु।



-आनन्द पाठक-

शनिवार, 23 मार्च 2019


जागो मतदाता, जागो
दो एक वर्षों से कई राजनेता सेना के जवानों का अपमान करने की होड़ में लगे हैं.
इन में से एक भी राजनेता ऐसा नहीं है जो सियाचिन की ठंड या रेगिस्तान की चिलचिलाती धूप में आधा घंटा भी रह पाए. जिन कठिनायों का सामना सीमा पर तैनात एक जवान करता है उसका इन्हें रत्ती भर भी अहसास नहीं है.
और आश्चर्य की बात तो यह कि इन सब लोगों को एक्स या वाई या जेड केटेगरी की सुरक्षा मिल हुई है. इनकी जीवन शैली मुगलिया सल्तनत के नवाबों जैसी है. सब का खर्च हम लोग उठाते हैं, वह भी जो दो वक्त की रोटी भी मुश्किल से जुटा पाते हैं.  
यह सम्मानित लोग एक सैनिक का अपमान करने में कभी हिचकते नहीं हैं, क्योंकि हम लोग उन्हें ऐसा करने देते हैं. हम लोग उनकी अभद्र और अपमानजनक बातें सुन कर तालियाँ बजाते हैं और वोट देकर उन्हें विधान सभा या लोकसभा पहुंचाते हैं.
किसी भी देश में ऐसा व्यक्ति जो सेना का अपमान करता है राजनीति में टिक नहीं सकता. पर हमारे देश में ऐसे नेता वर्षों तक राजनीति में फलते-फूलते हैं और खूब उन्नति करते हैं.
दोष हमारा है, इन नेताओं का नहीं. अगर हमें अपनी सेना पर गर्व होता, अगर हमें अपने सैनिकों पर अभिमान होता, अगर सैनिकों और उनके परिवारों के बलिदान के महत्व को हम समझते तो ऐसे नेताओं को हम एक पल के लिए भी राजनीति में सहन न करते. दोष हमारा है कि ऐसे लोगों को हम ने अपना सिरमौर बना कर रखा है.
लेकिन शीघ्र ही हमें अवसर मिलने वाला है. इन नेताओं को स्पष्ट जता देना होगा कि हमें अपनी सेना पर विश्वास है, अपनी सेना पर अभिमान है और उनके बलिदान को हम अपमानित न होने देंगे. इस अवसर हाथ से न जाने दें.
और आइये मिलकर एक मुहीम शुरू करें, और अपनी सेना के सम्मान की रक्षा करें.


गुरुवार, 21 मार्च 2019


छतिसिंहपोरा  नरसंहार
क्या कल आपने किसी मीडिया चैनल पर या किसी समाचार पत्र में छतिसिंहपोरा  नरसंहार के विषय में एक शब्द भी सुना या पढ़ा?
क्या किसी ह्यूमन-राइट्स वाले को इस नरसंहार की बात करते सुना?
वह लोग जो आज़ादी के नारे लगाते है या वह नेता जो उनके समर्थन में खड़े हो जाते हैं या वह जो आये दिन नक्सालियों के लिए आवाज़ उठाते हैं या वह जो फर्जी मुठभेड़ों के लेकर न्यायालयों और ह्यूमन-राइट्स कमीशन के दरवाज़े बार-बार खटखटाते हैं, इनमें से किसी को भी आपने इस नरसंहार में मारे गये लोगों के और उनके अभागे परिवारों के लिए अपने संवेदना प्रकट करते सुना?
किसी ने दिखावटी संवेदना भी प्रकट नहीं की.
शायद इस लेख के अधिकतर पाठक भी न जानते होंगे कि 20 मार्च 2000 के दिन कश्मीर के एक गाँव में 35 सिखों को आतंकवादियों ने घेर कर उनकी निर्मम हत्या कर दी थी. जिनकी हत्या की गई  उन में किशोर भी थे और वृद्ध भी.
वैसे कश्मीर में हत्याओं का सिलसिला तो बहुत पहले शुरू हो गया था. कश्मीरी हिन्दुओं की निर्मम हत्याओं के साथ ही जिहाद की शुरुआत हुई थी. पर छतिसिंहपोरा  नरसंहार एक बहुत ही वीभत्स कांड था, जिसकी न कोई जांच हुई और न ही किसी दोषी को सज़ा मिली.
पर खेद तो इस बात का है कि मीडिया और बुद्दिजीवी और सोशल एक्टिविस्ट और कलाकार और राजनेता जो दुनिया भर में इस बात का ढिंढोरा पीटते हैं की वह मानवाधिकारों के लिए भारत में एक जंग लड़ रहे हैं वह सब छतिसिंहपोरा  नरसंहार को लेकर कितने तटस्थ हैं.
दुर्भाग्य है इस देश का कि ऐसा फर्ज़ी मीडिया और ऐसे फर्ज़ी बुद्दिजीवी यहाँ कितनी सरलता से सफल हो रहे हैं. दोष तो हमारा भी है. हम इस बात को स्वीकार करें या न करें, ऐसे सब नरसंहारों के लिए हम भी थोड़े-बहुत दोषी हैं, क्योंकी हम ने कभी किसी को उत्तरदायी नहीं समझा, चाहे वह सरकार हो या मीडिया या फर्ज़ी बुद्धिजीवी.

मंगलवार, 19 मार्च 2019


गालियाँ ही गालियाँ
गालियों की हो रही है
आजकल खूब बौछार,
देश में आ गया है चुनाव
फिर इक बार,
शिशुपाल भी लगा है
थोड़ा घबराने,
उसका कीर्तिमान तोड़ेंगे
नेता नये-पुराने,
सब नेताओं में लगी है
इक होड़,
गली-गली में हो रही
अपशब्दों की दौड़,
एक बुद्धिजीवी को लगा
यह है सुनहरा अवसर,
रातों-रात  विज्ञापन चिपका दिए
हर सड़क पर,
“गालियाँ ही गालियाँ
बस एक बार मिल तो लें,
प्रोफेसर जी. ‘अपशब्द’ से
सब नेता आज ही मिलें”,
पर प्रोफेसर जी. को
इस बात का न था अहसास,
गालियों का अनमोल खज़ाना था
हर नेता के पास,
फिर प्रोफेसर जी. थे
बंधे मर्यादाओं से अब तक,
लेकिन किस नेता ने फ़िक्र की
मर्यादों की आजतक,
बेचारे नेता भी क्या करें
राजनीति भी एक धंधा है,
पापी पेट के लिए सब करना पड़ता
नोट-बंदी के चलते पहले ही सब मंदा है.

चिड़िया: होली

चिड़िया: होली: होली के अवसर पर सारे, रंगों को मैं ले आऊँ, और तुम्हारे जीवन में मैं, उन रंगों को बिखराऊँ... लाल रंग है गुलमोहर का, केशरिया पलाश का ह...

शुक्रवार, 15 मार्च 2019


चीन का हाथ अज़हर मसूद के साथ
जैसी की अपेक्षा थी चीन फिर एक बार अज़हर मसूद की ढाल बना. सिक्यूरिटी कौंसिल में वह अकेला ऐसा सदस्य था जिसने उस आतंकवादी का साथ दिया.
देश में कई लोग चीन के इस व्यवहार से क्रोधित हैं, कुछ प्रसन्न भी हैं. पर हर कोई इस बात की अनदेखी कर रहा हैं कि चीन के लिए सबसे महत्वपूर्ण उसके अपने हित है. अपने हितों को ख्याल रखना हर स्वाभिमानी देश के नागरिकों और नेताओं का सर्वोच्च कर्तव्य होता है.  चीन के लोग बहुत ही स्वाभिमानी हैं. वह अपने को बहुत ही श्रेष्ठ समझते हैं. देश हित उनके लिए सर्वोपरि होता है. इस बार भी उन्होंने वही निर्णय लिया जो उनकी समझ में उनके हित में था.
अगर हम लोग अपने परिवार, अपनी पार्टी, अपनी जाति, अपने प्रदेश, अपने धर्म को देश के हितों से ऊपर (बहुत ऊपर) रखते हैं, तो यह हमारी समस्या है. अगर हम समझते हैं कि कोई और हमारी मुसीबतों से हमें छुटकारा दिला देगा तो यह हमारी ना-समझी है.
ध्यान देने योग्य बात तो यह है कि जब हम लोग ही अपने हितों की अनदेखी कर रहे हैं तो दूसरे को क्या पड़ी है कि वह अपने हितों को भूल कर हमारी समस्याएं सुलझाने लगे.
जब आतंकवाद को लेकर हम स्वयं ही एक आवाज़ में नहीं बोल रहे, तो चीन हमारे साथ क्यों युगलबंदी करे?
जब हम सब सरकार के साथ नहीं खड़े हैं, तो चीन हमारी सरकार के साथ क्यों खड़ा हो?
अगर हम में से कई विद्वान् टुकड़े-टुकड़े गैंग को लेकर असमंजस में हैं और कई समझदार राजनेता और बुद्धिजीवी खुल कर उनके समर्थन में खड़े हैं , तो चीन उनकी पीठ पर अपना हाथ क्यों न रखे?
अगर चालीस वर्षों में हम  आतंकवाद को लेकर कोई ठोस नीति नहीं बना पाए, तो चीन हमारी सहायता क्यों करे?
अगर हम बार-बार आतंकवादियों के सामने घुटने टेक देते हैं, तो चीन हमारा सम्मान क्यों करे?
हमें यह बात समझ लेनी होगी कि जो देश हमारे साथ खड़े हैं, वह अपने हित साधने के लिए खड़े हैं. और जो साथ नहीं हैं, उनका हित उसी में हैं. ऐसा उन सब का अपना विश्लेष्ण हैं.
अगर हम एक शक्तिशाली देश बनना चाहते हैं तो हमें आत्म-निर्भर और स्वाभिमानी बनना होगा. अन्यथा आतंकी हमले होते रहेंगे और हम ट्विटर और सोशल मीडिया पर अपना रोना-धोना करते रहेंगे.
*****
अनुलेख – हम में से जो लोग आज क्रोधित हैं उनमें से कितने लोग चीन और चीनी वस्तुयों का बहिष्कार करने को तैयार हैं?

बुधवार, 13 मार्च 2019


मसूद अज़हर  जी.......”
कांग्रेस का जिहादियों के साथ अनोखा संबंध है. दिग्विजय सिंह हमेशा ओसामा का नाम बड़े सम्मान के साथ लेते हैं. एक अन्य नेता के लिए अफज़ल गुरु “जी” थे. शिंदे साहिब के लिए हाफिज़ “श्री” थे. अब राहुल गांधी के लिए भी मसूद अज़हर “जी” हो गये हैं.
अब पार्टी अध्यक्ष ने कहा तो कार्यकर्ताओं का कर्तव्य है कि उनकी बात को उचित सिद्ध करें, तो ब्यानबाज़ी  शुरू हो गयी है.
सेना अध्यक्ष इनके लिए गली के गुंडे समान है. सेना के अधिकारियों के वक्तव्यों पर इनका विश्वास नहीं हैं. इन्हें सेना से हर बात का सबूत चाहिये. इनमें कुछ अनुभवी लोग अवश्य जानते होंगे कि किसी भी देश में सेना अपनी कार्यवाही के ऐसे सबूत सार्वजनिक नहीं करती और न ही वहां का कोई नागरिक अपनी सेना पर अविश्वास करता है. पर यह भारत है यहाँ सब कुछ संभव है.
वैसे भारत के मुख्य न्यायाधीश पर भी कांग्रेस ने अभियोग चलाने का प्रयास किया था. कांग्रेस के नेताओं को उन पर विश्वास नहीं था. उन्हें सीएजी पर विश्वास नहीं है, इवीएम  पर विश्वास नहीं है.
जिस तरह की भाषा यह प्रधान मंत्री के लिए प्रयोग करते आयें हैं, वह अकसर अभद्र होती है. पर उसे नज़रंदाज़ किया जा सकता है, क्योंकि बीजेपी और खासकर मोदीजी के साथ कांग्रेस,  और खासकर गांधी परिवार के सदस्य, एक राजनीतिक लड़ाई लड़ रहे हैं. पिछड़ी जाति और गरीब परिवार का एक व्यक्ति, उनकी अनुकंपा के बिना, प्रधान मंत्री के पद पर पहुँच जाए,  यह बात उनके लिए स्वीकार थोड़ा मुश्किल है. तो उनका कुंठित होना स्वाभाविक है.
पर इस कुंठा के चलते वह जिहादियों से प्रेम करने लगें यह समझ के परे है. चालीस वर्षों से पाकिस्तान एक परोक्ष युद्ध कर रहा है. आतंकी हमलों में हज़ारों लोगों की  मृत्यु हुई या  घायल हुए. पर इस देश की किसी सरकार ने (अटल सरकार ने भी) जिहादियों को उनके घर में घुस कर मारने का साहस नहीं किया. अब इस सरकार ने थोड़ा साहस दिखाया है, तो कांग्रेस की कुंठा और बढ़ गयी है. उन्हें लगता है कि मोदी जी के इस निर्णय से उनकी प्रतिष्ठा थोड़ी घट गयी है.
तो कांग्रेस के पास उपाय क्या है? उनके पास एक ही उपाय है; वह उपाय है इन सर्जिकल स्ट्राइक्स को अविश्वास और संदेह के घेरे में ले आएँ. इस कार्य को सफलता पूर्वक करने में राहुल गाँधी जी-जान से प्रयास कर रहे है. आज लगभग सारा विपक्ष इस मुद्दे पर एक साथ है. सब का कहना है कि सर्जिकल स्ट्राइक्स राजनीति से प्रेरित थीं और उनकी सफलता संदेहास्पद है. और संयोग से यही बात पाकिस्तान भी कह रहा है.
राहुल गांधी यह आरोप लगा रहे थे कि “मसूद अज़हर जी” को पिछली बीजेपी सरकार ने छोड़ा था.
निश्चय ही यह निर्णय उस सरकार की बड़ी भूल थी. अटल जी को उस भयंकर आतंकवादी को कभी नहीं छोड़ना चाहिए था और जहाज़ के लगभग डेढ़ सौ यात्रियों का बलिदान दे देना चाहिये था.
पर क्या यह बलिदान देने के लिए लोग तैयार थे?
राहुल गांधी उस समय बहुत छोटे थे, शायद उन्होंने उन दिनों टीवी रिपोर्ट्स नहीं देखी होंगी.  लेकिन अगर आप को उस समय के टीवी रिपोर्ट्स याद हैं तो आप एक पल में इस प्रश्न का उत्तर जान जायेंगे. मसूद अज़हर की रिहाई के लिए जितनी सरकार दोषी थी, उतना ही विपक्ष, मीडिया और आम लोग दोषी थे. 


शुक्रवार, 8 मार्च 2019


क्या सरकार को हवाई स्ट्राइक के सबूत सार्वजनिक करने चाहियें?

पिछले कुछ दिनों से हवाई स्ट्राइक को लेकर आश्चर्यजनक ब्यानबाज़ी हो रही है. ऐसी-ऐसी बातें कही जा रही हैं जिन्हें सुन कर मुझ जैसा आम आदमी तो चकरा गया है.
ऐसा लगता है कि सरकार पर विपक्ष और मीडिया के कुछ लोग भरपूर दबाव डाल रहें ताकि अपनी और सेना की साख बचाने के लिए सरकार स्ट्राइक के कुछ प्रमाण सार्वजनिक कर दे.
क्या इस दबाव के पीछे सिर्फ राजनीति है या किसी का कोई अप्रत्यक्ष एजेंडा भी है?
शायद आम लोगों को इस बात की जानकारी नहीं होगी कि सेना का हर मिशन बहुत ही गुप्त होता है. हर मिशन की जानकारी गिने-चुने अधिकारियों और सैनिकों को होती है. मिशन कब होगा, कैसे किया जाएगा, किस प्रकार के हथियार इस्तेमाल होंगे अर्थात मिशन की हर छोटी या बड़ी बात पूरी तरह गुप्त रखी जाती है और सिर्फ उन्हीं लोगों के पास होती जिनका मिशन से सीधा संबंध होता है .  
मिशन पूरा होने के बाद ‘डी-ब्रीफिंग’ होती. मिशन सफल हुआ हो या असफल, मिशन से जुड़े लोगों से जानकारी ली जाती. भविष्य में बनने वाली योजनाओं में उन जानकारियों से लाभ उठाया जाता है. ट्रेनिंग में भी उस जानकारियों का उपयोग किया जाता  है.
ऐसी गुप्त जानकारियों को प्राप्त करने के लिए शत्रु हमेशा बेताब रहता है. क्योंकि वह आपकी क्षमता और आपकी कमजोरियों को समझना चाहता है. हर देश की मिलिट्री इंटेलिजेंस अपने शत्रु सेना के बारे में ऐसी जानकारी प्राप्त करने के लिए कई हथकंडे उपयोग में लाती है और इस काम को बड़ी चालाकी से पूरा करती है.
हवाई स्ट्राइक का हर प्रमाण हमारी वायु सेना की क्षमता और कमजोरियों का कुछ न कुछ संकेत शत्रु को अवश्य देगा. चाहे वह कितना ही मामूली क्यों न हो, पर ऐसा हर संकेत शत्रु की जानकारी में कुछ न कुछ  वृद्धि तो करेगा.
हो सकता है कि हमारे देश का कोई भी नागरिक शत्रु के लिए काम न कर रहे हो, पर फिर भी इस समय किसी दबाव में आकर सरकार को ऐसा कोई प्रमाण सार्वजनिक नहीं करना चाहिये जो हमारी सेनाओं को किसी भी रूप में कमज़ोर करे या शत्रु की जानकारी में किसी प्रकार की वृद्धि करे.
प्रमाण कब सार्वजनिक करने हैं यह निर्णय एक सोची-समझी रणनीति के अनुसार ही होना चाहिये.

अकेली नहाती लड़की

भीषण ग्रीष्म
धरती छूकर जलते पैर
बड़ी कठीनाई से पहुचता था
बिना चप्पलों के
तालाब के किनारे
उस पेड़ के नीचे ।
एक गौरैया गर्मी से बेहाल
किनारे पानी में
हो रही थी लोटपोट।
फिर पानी से बाहर रही थी फूदक ।
फरफरा रही थी पंख
झाड़ रही थी पांखों की बूंदें
अल्हड़ता के साथ
आसपास से अनभिग
व स्वयं में तल्लीन।
स्मरण हो आया वो अरसा अचानक
चक्र उस घटनाओ का
देखकर सहसा
तालाब में
अकेली नहाती लड़की
व झटक कर झाड़ती बालों से बूंदे ।

कुछ और नहीं हमी की तरह है

कुछ और नहीं हमी की तरह है
ये जिंदगी जिंदगी की तरह है
यो न झुका सर हर चैखटों पर
ये आदत बंदगी की तरह है
क्यूं जां लेके घूमता है हथेली पे
ये जूर्रत आशिकी की तरह है
रात ख्वाबों में उससे मुलाकात हुई
उसकी हर बात मौसिकी की तरह है
ळो अब ख्याल गजल बनने ळगे
हर खुशी गम, गम खुशी की तरह है
यूॅ तो चमकते सितारे खूब हैं पर
चाॅद बिन फ़लक में कुछ कमी की तरह है
फिर मयस्सर हुआ मुदृतों बाद मुझको
ये माॅं का आँचल बिल्कुल जमीं की तरह है
मुझे शहर छोड़ अब घर जाना ही होगा
माॅ से मिलने की चाहत बेखुदी की तरह है