बुधवार, 27 मार्च 2019

एक व्यंग्य : हिन्दी-सेवा उर्फ़ फ़ेसबुक- सेवा

एक व्यंग्य : हिन्दी सेवा उर्फ़ फ़ेसबुक सेवा

- भाई साहब ! सोचता हूँ कि अब मैं भी कुछ हिन्दी की सेवा कर लूँ।" -मिश्रा जी ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा
-" क्यों ? अब कितनी सेवा करोगे हिन्दी की ? सरकारी नौकरी में 30-साल तक ’हिन्दी-पखवारा" में हिन्दी की सेवा ही तो की है ।हर साल बड़े साहब की ’स्तुति-गान ’ करते रहे और बजट लेते रहे । आप उन्हें ’शाल-श्रीफल" से सम्मानित करते रहे, उद्घाटन के लिए चाँदी की तश्तरी, कैंची लाते रहे और वो लेते रहे । कितना मनोयोग से शुद्ध संस्कृत निष्ठ शब्दों से आप उनका स्वागत भाषण लिखते थे ।हिन्दी की उपल्ब्धियाँ गिनाते थे ,हिन्दी कैसे आगे बढ़े, रास्ते बतलाते थे। पूरा विभाग हिन्दीमय हो जाता था उन दिनों । आप ने विभागीय हिन्दी मैगज़ीन का सम्पादन किया,स्मारिका छपवाई ,मुद्रक-प्रकाशक से दान-दक्षिणा ली।अपनो को रेवड़िया बाँटी । बड़े साहब की मिसेज को वरिष्ठ कवयित्री बताया । भाई मिश्रा जी ! अब हिन्दी की कितनी सेवा करोगे?
मिश्रा जी का रिटायर्मेन्ट के बाद 30 साल का ’ हिन्दी-अधिकारी’ का दर्द छलक आया --" एक हिन्दी अधिकारी का दर्द तुम क्या समझ सकोगे आनन्द बाबू ! जाके पैर न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई। हिन्दी अधिकारी का दर्द,किसी हिन्दी अधिकारी से पूछो, बुद्धिनाथ मिश्र जी से पूछो-

पीर बवर्ची भिश्ती खर हैं ,कहने को हम भी अफ़सर हैं
सौ सौ प्रश्नों की बौछारें,एक अकेले हम उत्तर है
इसके आगे, उसके आगे,दफ़्तर में जिस तिस के आगे
क़दमताल करते रहने को ,आदेशित हैं हमी अभागे
तन कर खड़ा नहीं हो पाए,सजदे में कट गई उमर है
पीर बवर्ची भिश्ती खर हैं-----


अब रिटायर हो गया हूँ ,सेवा निवृत हो गया हूँ,मुक्त हो गया हूँ सरकारी झंझटों से ,कलम आज़ाद हो गई है । सोच रहा हूँ अब कुछ मुक्त लेखनी से हिन्दी की मुक्त सेवा ही कर लूँ --माँ भारती बुला रही है -हिन्दी मुझे पुकार रही है।
" हिन्दी की ही सेवा क्यों ?"-मैने अपनी जिज्ञासा का समाधान किया-" सेवा-निवॄत के पश्चात तो और भी बहुत सी चीज़ें है सेवा करने के लिए --समाजसेवा--गो सेवा--जन सेवा--पर्यावरण सेवा---कार सेवा -मन्दिर सेवा--। बहुत से अधिकारी यही सब करते है रिटायर्मेन्ट के बाद और ’फोटू’ खिंचवाते रहते है ’फ़ेसबुक’ पर चढ़ाते रहते है --सेवा की सेवा--प्रचार का प्रचार ।
"-भई पाठक जी ! जन सेवा करने निकला था पर किसी पार्टी ने चुनाव का टिकट ही नहीं दिया तो हम जन सेवा कैसे करते? आप ही बताइए । पर्यावरण सेवा करने निकला तो कमेटी वालों ने ’एक पेड़ में बारह हाथ" लगा दिए । फोटू में तो सबके चेहरे खिले खिले थे बस पेड़ ही ’मुरझा’ गया था--और उसमें भी मेरा चेहरा कट गया था -सो पर्यावरण की सेवा छोड़ दी।
-’तो गो सेवा ही कर लेते’
-वो भी किया ।

घर से है गोशाला बहुत दूर चलो यूँ कर ले
सड़क पे किसी गाय को घास खिलाया जाए

मगर आने जाने के लफ़ड़े से अच्छा है कि हिन्दी की ही सेवा की जाए। घर में बैठे रहो और कुछ अल्लम गल्लम अगड़म-बगड़म फ़ेसबुक पे रोज़ रोज़ चिपकाते रहो। न हर्रे लगे न फिटकरी और रंग बने चोखा।
मैने कहा -’भाई मिश्रा जी !बहुत से लोग हैं हिन्दी की सेवा करने के लिए आजकल । फ़ेसबुक पर ,इन्टरनेट पर,व्हाट्स अप पर ,मंच पर ,ब्लाग पर हर दूसरा व्यक्ति ’सेवा ’ कर रहा है हिन्दी का --आप उसमे और क्या कर लोगे?
मिश्रा जी -’भाई साहब !आप के साथ यही ’प्रोब्लम’ है --प्रथम ग्रासे मच्छिका पात : -कर देते हों। आप जैसे लोगों के कारण ही, हिन्दी का स्तर दिन-प्रति दिन नीचे गिरता जा रहा है--भाषा का स्तर नहीं --वर्तनी का ख़याल नहीं --भाव किधर भाग रहा है -ध्यान नहीं ,बस फोटू पर फोटू लगाए जा रहे हैं लोग। यहाँ सम्मानित हुए--वहाँ सम्मानित हुए। यहाँ छपे--वहाँ छपे । यह प्रमाण पत्र --वह प्रमाण पत्र । इस मंच की अध्यक्षता की--उस मंच की अध्यक्षता की। यही सब है हिन्दी सेवा के नाम पर---
--तो आप क्या कर लोगे ?
---मैं संघर्ष करूँगा -आन्दोलन करूँगा --ज्योति जलाऊँगा----हिन्दी भाषा का विकास करूँगा ---स्तर ऊँचा करूँगा -लोगों को अपने साथ जोडूँगा -- ।फोटू खिंचवाऊँगा-- फोटू लगाऊँगा--
--कैसे?
-- ’फ़ेसबुक पर एक ग्रुप बनाऊँगा--
---फ़ेसबुक ही क्यों?
---उस में पैसा नहीं लगता -- और ’एडमिनिस्ट्रेटर बनूँगा ’फ़्री’ में सो अलग से ।
--अच्छा ’जब तोप का मुक़ाबिल हो ,अख़बार निकालो’-’मंच पे ही कुछ जुगाड़ लगा लो । मगर एड्मिनिस्ट्रेटर’ ही क्यों ?
--यार मज़े हैं -एड्मिनिस्ट्रेटर-बनने में --जब चाहे किसी को जोड़ लो ग्रुप में ,जब चाहे किसी को लतिया दो ग्रुप से -धकिया दो मंच से-अहम तुष्टी होती रहती है -और मुफ़्त में ब्लाग "प्रबन्धक" बनने का सुख अलग से --साहित्यकार होने का सुख भी मिलता रहता है।जिसको चाहो ’वरिष्ठ साहित्यकार- मूर्धन्य साहित्यकार ---हिन्दी के सशक्त हस्ताक्षर -- -राष्ट्र कवि -बता दो ।-कौन पूछता है-?--जिसको चाहो ’अज़ीमुश्शान शायर’- क़रार कर दो-- तगमा बाँटते चलो- ।-बुला बुला कर सम्मानित करूँगा- शाल उढ़ा दो ---दो चार दस पैसे तो बच ही जायेंगे ।
--आप कौन होते हैं ’रेवड़ी बाँटने वाले" ?-मैने विरोध किया
---भाई साहब ! हम न बाँटेंगे ,तो वो खुद ही बाँट लेंगे---शायर अमुक फ़लानवी--- कवयित्री ढेकानवी-- वरिष्ठ कवि अलानवी----कौन है रोकने वाला ? अब तो लोग अपने प्रोफ़ाइल में के पेशा/व्यवसाय कालम मे लिखते है कवि --शायर--साहित्यकार --सब ’स्वयंभू" के "स्वयंभू"। मानो कविता शायरी साधना न हो कर पेशा हो गई ,धंधा हो गई---

-एक बात कहूँ मिश्रा जी ?एक सुझाव दूँ ?
--हाँ हाँ ज़रूर कहें - मिश्रा जी ने चहकते हुए कहा
-"आप कुछ भी न लिखे तो हिन्दी की यही "सबसे बड़ी सेवा" होगी।

मिश्रा जी मुँह बनाते हुए, उठ कर चल दिए ।
अस्तु।



-आनन्द पाठक-

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