शनिवार, 18 मई 2019

एक ग़ज़ल : सपनों को रखा गिरवी--

ग़ज़ल   :  सपनों को रखा गिरवी--


सपनों को रखा  गिरवी, साँसों पे उधारी है
क़िस्तों में सदा हमने ,यह उम्र  गुज़ारी  है

हर सुब्ह रहे ज़िन्दा , हर शाम रहे मरते
जितनी है मिली क़िस्मत ,उतनी ही हमारी है

अबतक है कटी जैसे, बाक़ी भी कटे वैसे
सदचाक रही हस्ती ,सौ बार सँवारी  है

जब से है उन्हें देखा, मदहोश हुआ तब से
उतरा न नशा अबतक, ये कैसी ख़ुमारी  है

दावा तो नहीं करता, पर झूठ नहीं यह भी
जब प्यार न हो दिल में, हर शख़्स भिखारी है

देखा तो नहीं लेकिन, सब ज़ेर-ए-नज़र उसकी
जो सबको नचाता है, वो कौन मदारी  है ?

जैसा भी रहा मौसम, बिन्दास जिया ’आनन’
दिन और बचे कितने, उठने को सवारी है

-आनन्द.पाठक- 

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