रविवार, 30 मई 2021

एक ग़ज़ल : उँगलियाँ वो सदा उठाते हैं

 एक ग़ज़ल 


उँगलियाँ वो सदा उठाते हैं

शोर हर बात पर मचाते हैं


आप की आदतों में शामिल है

झूठ की ’हाँ ’ में”हाँ ’ मिलाते हैं


आँकड़ों से हमें वो बहलाते

रोज़ सपने नए दिखाते हैं


बेच कर आ गए ज़मीर अपना

क्या है ग़ैरत ! हमें सिखाते हैं


लोग यूँ तो शरीफ़ से दिखते

साथ क़ातिल का ही निभाते हैं


चल पड़ा है नया चलन अब तो

दूध के हैं  धुले,  बताते हैं


दर्द सीने में पल रहा ’आनन’

हम ग़ज़ल दर्द की सुनाते हैं


-आनन्द.पाठक -

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