बुधवार, 15 सितंबर 2021

एक ग़ज़ल : अभी नाज़-ए-बुताँ देखूँ--कि

 

एक ग़ज़ल

अभी नाज़-ए-बुतां देखूँ  कि ज़ख़्मों के निशाँ देखूँ ,
मिले ग़म से ज़रा फ़ुरसत तो फिर कार-ए-जहाँ देखूँ।   


मसाइल हैं अभी बाक़ी ,मसाइब भी कहाँ कम हैं ,
ज़मीं पर हो जो नफ़रत कम तो फिर मैं आसमाँ देखूँ । 


जो देखा ही नहीं तुमने , वहाँ की बात क्या ज़ाहिद !
यहीं जन्नत ,यहीं दोज़ख़ मैं ज़ेर-ए-आसमाँ  देखूँ ।      


मुहब्बत में किसी का जब, भरोसा टूटने लगता,
तो बढ़ते दो दिलों के बीच की मैं  दूरियाँ  देखूँ ।        


लगा रहता है इक धड़का हमेशा दिल में जाने क्यूँ.
उन्हें जब बेसबब बेवक़्त होते मेहरबाँ  देखूँ ।          


किधर को ले के जाना था, किधर यह ले कर आया है,
अमीरे-ए-कारवाँ की और क्या नाकामियाँ देखूँ ।       


सियासत में सभी जायज़, है उनका मानना ’आनन’ 
हुनर के नाम पर उनकी, सदा चालाकियाँ देखूँ ।       

-आनन्द.पाठक-

शब्दार्थ

मसाइल = समस्यायें

मसाइब =मुसीबतें

धड़का = डर ,भय,आशंका

ज़ेर-ए-आसमाँ =आसमान के नीचे यानी धरती पर

अमीरे-ए-कारवाँ = कारवाँ का नायक, नेता 

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