मंगलवार, 4 जनवरी 2022

 

ट्रेन

सारा दिन वह अपने-आप को किसी न किसी बात में व्यस्त रखता था; पुराने टूटे हुए खिलौनों में, पेंसिल के छोटे से टुकड़े में, एक मैले से आधे कंचे में या एक फटी हुई फुटबाल में. लेकिन शाम होते वह अधीर हो जाता था.

लगभग हर दिन सूर्यास्त के बाद वह छत पार आ जाता था और घर से थोड़ी दूर आती-जाती रेलगाड़ियों को देखता रहता था.

“क्या पापा वो गाड़ी चला रहे हैं?”

“शायद,” माँ की आवाज़ बिलकुल दबी सी होती.

“आज पापा घर आयेंगे?” हर बार यह प्रश्न माँ को डरा जाता था.

“नहीं.”

“कल?”

“नहीं.”

“अगले महीने?”

“शायद?”

“वह कब से घर नहीं आये. सबके पापा हर दिन घर आते हैं.”

“वह ट्रेन ड्राईवर हैं और ट्रेन तो हर दिन चलती है.”

“फिर भी.”

माँ ने अपने लड़के की और देखा, वह मुरझा सा गया था. उसकी आँखें शायद भरी हुई थीं. माँ भी अपने आंसू न रोक पाई.

‘मैं कब तक इसे सत्य से बचा कर रखूँगी?’ मन में उठते इस प्रश्न का माँ सामना नहीं कर सकती थी. इस प्रश्न को माँ ने मन में ही दबा दिया.

 

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (05-01-2022) को चर्चा मंच      "नसीहत कचोटती है"   (चर्चा अंक-4300)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'   

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    1. रचना का संज्ञान लेने के लिए धन्त्वाद

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  2. उफ्फ़! छोटी-सी इस लघुकथा ने व्यथा में डुबो दिया।

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