बुधवार, 5 जनवरी 2022

 

नए साहब का आदेश

नए साहब नौ बजे ही कार्यालय पहुँच गये. उनका पहला दिन था और वह किसी को सूचना दिए बिना ही आ गये थे. लेकिन नौ बजे तक तो सफाई कर्मचारी भी न आते थे. निर्मल सिंह ही अगर नौ बजे पहुँच जाता तो वही बड़ी बात थी. उसी के पास मेनगेट के ताले की चाबी होती थी. वही कार्यालय का ताला खोलता था. उसके बाद ही सफाई कर्मचारी आते थे. लगभग दस बजे अन्य कर्मचारियों का आगमन होता था.

एक बार तो ऐसा हुआ कि निर्मल सिंह बीमार हो गया और आया ही नहीं. साहब कहीं दौरे पर गये हुए थे, सभी कर्मचारी निश्चिन्त भाव से दस बजे के बाद ही आने शुरू हुए. मेनगेट पर ताला देख कर सब एक-दूसरे का मुँह ताकने लगे. धीरे-धीरे अच्छी-खासी बहस छिड़ गई कि किसे निर्मल सिंह के घर जाकर चाबी लानी चाहिए. निर्मल सिंह का घर सौ मीटर दूर भी न था पर प्रश्न दूरी का न था, नियमों का था. बहस लंबी चली और किसी निष्कर्ष पर न पहुँची. लगभग बारह बजे निर्मल सिंह की पत्नी आकर चाबी दे गई और तभी कार्यालय खुला.

उस दिन (जिस दिन नए साहब पहली बार आये) निर्मल सिंह ने साहब को गेट के पास खड़े पाया तो बड़े अदब से बोला, “अरे भाई, इतनी जल्दी आ गये. अभी तो बाबुओं के आने का समय नहीं हुआ. मुझ बदनसीब के सिवाय कोई दस बजे से पहले नहीं आता. घंटे-डेढ़ घंटे बाद आना. वैसे काम क्या है? किस बाबू से मिलना है?”

निर्मल सिंह ने उन्हें कोई फरियादी समझ लिया था. साहब ने उसे ऐसे घूर कर देखा कि जैसे वह किसी अन्य लोक का प्राणी था. फिर गरज कर कहा, “ दरवाज़ा खोलो, अभी!”

निर्मल सिंह सहम गया. उसे लगा कि कोई गलती कर बैठा था. उसके हाथ कांपने लगे और चाबी हाथ से फिसल कर नीचे जा गिरी. जैसे-तैसे कर उसने दरवाजा खोला.

साहब ने कार्यभार संभालते ही पहला आदेश जारी किया कि हर कर्मचारी नौ बज कर दस मिनट से पहले ही कार्यालय पहुँच जाए और हर दिन नौ बज कर दस मिनट पर उपस्थिति रजिस्टर उनके पास भेज दिया जाए.

औरों की भांति तरसीम लाल ने भी आदेश का अवलोकन कर आदेश पुस्तिका पर हस्ताक्षर कर दिए, लेकिन औरों की तरह वह चुप न रहा. सीधा बड़े बाबू के पास आया.

“यह क्या हो रहा है, बड़े बाबू?”

“क्या हो रहा है? आप ही बताएं?” बड़े बाबू ने टालने के अंदाज़ में कहा.

“इस आदेश का अर्थ क्या है? तीस वर्ष हो गये मुझे यहाँ काम करते हुए पर आजतक किसी साहब ने ऐसा आदेश नहीं दिया,” तरसीम लाल टलने वाले प्राणी न था.

“नियमानुसार तो हर सरकारी कर्मचारी को नौ बजे दफ्तर आ जाना चाहिए. इसमें इतना हैरान होने वाली क्या बात है,” बड़े बाबु ने कहा.

“नियमानुसार तो बहुत कुछ होना चाहिए, पर क्या सब वैसा ही होता है इस देश में,” तरसीम लाल ने बड़े नाटकीय ढंग से कहा.

“साहब का आदेश है कि नौ-दस पर उपस्थिति पुस्तिका उनके पास भेज दी जाए. कल से वैसा ही होगा. अब आप जाने और आपके नये साहब जाने,” बड़े बाबू ने पल्ला झाड़ते हुए कहा.

इस बहस को कई लोग ध्यान से सुन रहे थे, खासकर महिलायें. सब लोग परेशान थे.

“यह अन्याय है. मेरा तो अभी से बीपी बढ़ने लगा है.”

“मैं तो दस से पहले निकल ही नहीं सकती, सासु माँ का हुकुम है, नौकरी करनी है तो सारा काम निपटा कर ही घर से निकलूं.”

“मुझे तो यह अपने स्कूटर पर छोड़ जाते हैं पर श्रीमान जी दस बजे तो सजना-संवारना शुरू करते हैं.”

“यह यूनियन वाले क्या कर रहे हैं?”

“नकारे हैं वह लोग, साहबों के तलवे चाटते हैं.”

यूनियन को इस आदेश की सूचना मिल गई थी. निर्मल सिंह ने ही जनरल सेक्रेटरी को फोन करके बताया था. वहाँ भी बहस हो रही थी.

“डीओ का घेराव करना चाहिए.”

“नहीं, इस मामले में हम कुछ नहीं कर सकते. साहब का आदेश गलत नहीं है.”

“तो क्या हुआ? हम ऐसी तानाशाही नहीं चलने दे सकते. ऐसे साहबों को ठीक करने के और भी तरीके हैं. भूल गये उस जैन को कैसे रास्ते पर लाये थे? बस एक फाइल इधर से उधर हुई थी और कैसी फजीहत हुई थी उसकी.”

“वो सब बातें रहने दो. मेरा तो सुझाव है कि अभी हमें कुछ नहीं करना चाहिए. वैसे भी डीओ मैं बैठे लोग अपने को तुर्रमखां समझते हैं. उसी तरसीम को देखो, पन्द्रह सालों से वहीं है, जबकि पाँच सालों में उसकी बदली हो जानी चाहिए थी.”

“आप ठीक कह रहे हैं, यह लोग न तो समय पर यूनियन का चंदा देते हैं और न ही कभी यूनियन की किसी मीटिंग में आते हैं. इनकी चर्बी थोड़ी पिघलने देते हैं.”

इधर यूनियन वाले अपना सिक्का चलाने की फिराक में थे और उधर तरसीम लाल एक बाबू को समझा रहा था. वह लड़का दो साल पहले ही भर्ती हुआ था और थोड़ा घबराया हुआ था.

“अरे, तुम अभी कल के आये छोकरे हो. मुझे देखो, तीस साल की सर्विस हो गई है. डरने की कोई बात नहीं है. दो-चार दिन की बात है. फिर सब कुछ अपनी चिर-परिचित गति पर आ जाएगा,” तरसीम लाल ने भविष्यवाणी की.

“ऐसी बात है तो आप बड़े बाबू से उलझ क्यों रहे थे?”

“यह राजनीति अभी तुम समझ नहीं पाओगे,” तरसीम लाल ने कहा और ऐसे मुस्कराया जैसी उसने कोई बड़ी गूढ़ बात कही थी.

साहब के आदेश का पालन हुआ. जिस दिन आदेश जारी हुआ था उसके अगले दिन चालीस में से पन्द्रह लोग ही नौ बजे आये, बाकी सब देर से आये. साहब ने बड़े बाबू से कहा कि देर से आने वालों से स्पष्टीकरण माँगा जाए. सबने स्पष्टीकरण देने के लिए समय माँगा. यह स्पष्टीकरण अभी आये ही न थे कि कई और स्पष्टीकरण मांगने की आवश्यकता आ खड़ी हुई. किसी भी दिन आठ-दस से अधिक लोग समय पर दफ्तर नहीं आये थे.

इतने लोगों से स्पष्टीकरण माँगना, उन पर टिप्पणी करना, आकस्मिक अवकाश काटना, अवकाशों का हिसाब रखना, सब कुछ बड़े बाबू को करना पड़ता था. इतना सब करने के बाद रोज़मर्रा का अपना काम भी समय पर करना पड़ता था. इस कारण कई महत्वपूर्ण मामले लंबित होने लगे. हार कर उन्होंने साहब के सामने अपनी व्यथा व्यक्त की और सुझाव दिया कि उपस्थिति का हिसाब रखने का काम किसी वरिष्ठ बाबू को सौंप दिया जाए.

देरी से निपटाए गए मामलों को लेकर साहब अपने साहब से डांट खा चुके थे, इसलिए वह भी इस झंझट से झुटकारा पाना चाहते थे, अत: बड़े बाबू से बोले कि जो उचित लगे वह करें.

बड़े बाबू इसी निर्देश की प्रतीक्षा में थे. उन्होंने तुरंत यह काम तरसीम लाल को सौंप दिया.

तरसीम लाल झल्लाया और उसने साफ़ कह दिया कि वह अपने काम के बोझ के तले पिसा जा रहा था. “पहले ही आपने मुझे दो बाबुओं का काम दे रखा है. लेकिन बड़े बाबू में आपका बहुत सम्मान करता हूँ. इसलिए यह ज़िम्मेवारी स्वीकार कर रहा हूँ.”

उसी दिन से तरसीम लाल बुरी तरह व्यस्त रहने लगा है, इतना व्यस्त कि उपस्थिति पुस्तिका बड़े साहब के पास भेजने का भी उसके पास समय नहीं है. देर से आने वालों से स्पष्टीकरण मांगने का तो प्रश्न ही नहीं उठता.

साहब भी काम में इतने उलझ से गये हैं कि अकसर देर तक अपने दफ्तर में बैठे फाइलें देखते रहते हैं. अब चूँकि वह देर से घर जाते हैं इसलिए सुबह देर से कार्यालय आ पाते हैं.

बस बीच-बीच में बड़े बाबू से पूछ लेते हैं कि क्या सब समय पर आ जाते हैं, क्या देर से आने वालों के विरुद्ध उचित कारवाही हो रही है, क्या अनुशासन का पूरा पालन हो रहा है.

बड़े बाबू सिर हिला कर ‘येस सर’ ‘येस सर’ कहते रहते हैं. यह देखकर की बात बिगड़ नहीं रही यूनियन वालों ने एक नोटिस भेज दिया है जो साहब की मेज़ पर लम्बित पड़ा है. सब मज़े से हैं क्योंकि सब कुछ अपनी चिर-परिचित गति पर चल रहा है.

(इस व्यंग्य लेख में लिखी कुछ घटनाएँ सत्य है.)

 

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