रविवार, 3 अप्रैल 2022

एक ग़ज़ल

 

एक ग़ज़ल

 

 

दुश्मनी कब तक निभाओगे कहाँ तक  ?
आग में खुद को जलाओगे  कहाँ  तक  ?         
 
है किसे फ़ुरसत  तुम्हारा ग़म सुने जो ,
रंज-ओ-ग़म अपना सुनाओगे कहाँ तक ?         

नफ़रतों की आग से तो खेलते हो ,
पैरहन1 अपना बचाओगे  कहाँ  तक ?             

रोशनी से रोशनी का सिलसिला है ,
इन चरागों को बुझाओगे कहाँ  तक ?              

ताब-ए-उलफ़त2 से पिघल जाते हैं पत्थर ,
अहल-ए-दुनिया3 को बताओगे कहाँ  तक ?      

सब गए हैं, छोड़ कर, जाओगे तुम भी ,
महल अपना ले के जाओगे कहाँ  तक ?           

जाग कर भी सो रहे हैं लोग ’आनन’ ,
तुम उन्हें कब तक जगाओगे कहाँ  तक ?         

 


-आनन्द.पाठक-

8800927181


1- लिबास  2-प्रेम की तपिश से , 3- दुनिया के लोगों को, 


 

17 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार 04 अप्रैल 2022 ) को 'यही कमीं रही मुझ में' (चर्चा अंक 4390 ) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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  2. वाह!बहुत ही सुंदर।
    रोशनी से रोशनी का सिलसिला है ,
    इन चरागों को बुझाओगे कहाँ तक... गज़ब 👌

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  3. अच्छी गज़ल है । सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई ।
    - बीजेन्द्र जैमिनी

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