रविवार, 1 मई 2022

सूने अंधेरे

सूने अंधेरें कब तक गुजरेंगे

सन्नाटों को बांचते,

दिन भी  गुजरें, जैसे तैसे

खालीपन को  फांकते...


दीवारें सुनती नहीं अब,

 दरवाज़े खुलते नही ,

टेबल कुर्सी 

जस के तस है 

झूले भी हिलते नही ...

फानूस भी जो 

हवा चले, 

देखो, कैसे   है खांसते....

तन्हा तन्हा रोते  घर ये 

जब खुद की खिड़की से 

खुद को  ये झांकते ....


कोई एक दस्तक तो हो,

 कोई रास्ता खुद तक  हो,

 किसी ख़्वाब की,

 ख्वाहिश की मेरी..

 छोटी सी, पर 

 ज़द तो हो !

 शुरू होकर जो 

 खतम  हो जाए 

ऐसी ही सही, 

कोई हद तो हो ....

कहीं तो, गम की,

किसी खुशी से ,

छोटी सी, खटपट तो हो !

निष्प्राण पड़े इस जीवन में

कोई तो, हरकत सी हो ....

थक गई आंखें

फरियादों की,

फेहरिस्तों को यूं  बांचते...

बेचैनी के फटे लिबास को 

 इंतज़ार के पैबंदों से ढांकते...

 

सूने अंधेरें कब तक गुजरेंगे

सन्नाटों को बांचते,

दिन भी  गुजरें, जैसे तैसे

खालीपन को  फांकते...


~संध्या


12 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. बहुत बहुत आभार सर .. स्नेह सदा बनाए रखे 🙏

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  2. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर सोमवार 02 मई 2022 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  3. बेहतरीन, बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
    सादर।

    जवाब देंहटाएं