सूने अंधेरें कब तक गुजरेंगे
सन्नाटों को बांचते,
दिन भी गुजरें, जैसे तैसे
खालीपन को फांकते...
दीवारें सुनती नहीं अब,
दरवाज़े खुलते नही ,
टेबल कुर्सी
जस के तस है
झूले भी हिलते नही ...
फानूस भी जो
हवा चले,
देखो, कैसे है खांसते....
तन्हा तन्हा रोते घर ये
जब खुद की खिड़की से
खुद को ये झांकते ....
कोई एक दस्तक तो हो,
कोई रास्ता खुद तक हो,
किसी ख़्वाब की,
ख्वाहिश की मेरी..
छोटी सी, पर
ज़द तो हो !
शुरू होकर जो
खतम हो जाए
ऐसी ही सही,
कोई हद तो हो ....
कहीं तो, गम की,
किसी खुशी से ,
छोटी सी, खटपट तो हो !
निष्प्राण पड़े इस जीवन में
कोई तो, हरकत सी हो ....
थक गई आंखें
फरियादों की,
फेहरिस्तों को यूं बांचते...
बेचैनी के फटे लिबास को
इंतज़ार के पैबंदों से ढांकते...
सूने अंधेरें कब तक गुजरेंगे
सन्नाटों को बांचते,
दिन भी गुजरें, जैसे तैसे
खालीपन को फांकते...
~संध्या
वाह
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार सर .. स्नेह सदा बनाए रखे 🙏
हटाएंआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर सोमवार 02 मई 2022 को लिंक की जाएगी ....
जवाब देंहटाएंhttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
आभार आपका 🙏🙏
हटाएंवाह मर्मस्पर्शी रचना!!
जवाब देंहटाएंआभार अनुपमा जी
हटाएंलाज़बाब
जवाब देंहटाएंआपकी प्रशंसा प्रेरित करती है सदा 🙏
हटाएंबेहतरीन, बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंसादर।
आभार Sweta Ji
हटाएंबहुत ही बढ़िया
जवाब देंहटाएंBahut bahut आभार सर
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