डायरी के पन्नों से--
रविवार, 26 जून 2022
एक व्यंग्य व्यथा : एक लघु चिन्तन --देश हित में
सोमवार, 20 जून 2022
बादल बूंदे बारिश और मैं
सुनो,
आज तुम
मुझसे मिलने
इन बरसती रातों में
मत आना !
सोचा है मैंने,
आज बारिशें और मैं,
मैं और ये बारिशें,
भीगेंगें देर तक,
एक दूसरे में,
जब तलक,
एक एक बूंद में मैं
रच बस न जाऊं !
और,
हर बूंद से रग रग,
मैं भीग न जाऊं !
नही चाहिए .. कोई,
हमारे दरमियां!
बस हो तो,
बादल हो,
बूंदे हो ,
नशीली बारिशें हो,
और हूं, बस मैं !
शुक्रवार, 17 जून 2022
तेरे साए से लिपटकर रोया होता
तेरे साए से लिपटकर रोया होता
इतना तन्हा मजबूर मैं गोया होता
गुल भी होते और बुलबुल होती
सूखे बंजर मे शजर एक बोया होता
आ ही जाते ख्वाब मेरी आँखों मे
मैं किसी रात सूकून से जो सोया होता
कर ही डाला था जब तमन्नाओं का खून
अपने दामन से काश ये तो दाग़ धोया होता
सर झुकाए हुए यूं न चलता ' ज़िंदगी'
गर गुनाहों को कांधो पे यूं न ढोया होता
गुरुवार, 16 जून 2022
कितना खूबसूरत होता है
कितना खूबसूरत होता है
ऐसे तन्हा होना
समुंदर की धड़कनों संग
जागना सोना
रात से तेरे सायों में
कभी कभी जुगनू होना
चांदनी रातों में
चांद सा मुझसे रूबरू होना
जागती आंखों का
खूबसूरत कोई सपना होना
मेरी एक ही ख्वाहिश है
तुझसा कोई अपना होना
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सोमवार, 13 जून 2022
कुछ अनुभूतियाँ
कुछ अनुभूतियाँ
1
सच क्या बस उतना होता है
जितना हम तुम देखा करते ?,
कुछ ऐसा भी सच होता है
अनुभव करते सोचा करते
2
क्या कहना है अब, सब छोड़ो
क्या पाया, दिल ने क्या चाहा,
कितनी बार सफ़र में आया
मेरे जीवन में चौराहा ।
3
नए वर्ष के प्रथम दिवस पर
सब के थे संदेश, बधाई,
दिन भर रहा प्रतीक्षारत मैं
कोई ख़बर न तेरी आई
4
सोच रही क्यों अलग राह की?
ऐसा तो व्यक्तित्व नहीं है ,
चाँद-चाँदनी एक साथ हैं
अलग अलग अस्तित्व नहीं है ।
-आनन्द.पाठक-
शनिवार, 11 जून 2022
मन्नतें...
ख्वाहिशें तेरे दर पे आके
रुक गई है
मन्नतें तेरे दर पे आके
झुक गई है
अब यहां से मेरा
जाना होगा फिर कहां ?
तू मिरी तिशनगी
तू मिरी आवारगी
तू ही हैं मेरी जन्नत
तू जहां
तू है जहां जहां
मैं रहूंगी बस वहां .....
रोक पाऊंगी दिल में
तुझ को कब तक
मैं भला ?
वक्त ठहरा कब कहां ,
ये चला
वो तो हां चला ..
इक एक पल मैं जोड़ लूं
पहनूं तुझको , ओढ़ लूं
हर राह तुझपे
मोड़ लूं
अब तो आजा तू नज़र
जिस्मों जां में तू उतर
फिर राते हो या हो सहर
कर मुझमें तू बसर
न रोक पाऊं ज्वार ये
मैं, जलजला
भर दे मुझमें जो है,
वो ख़ला ।
तू है तो फ़िर किससे,
क्यों हो अब गिला
मैं बस चलूं
जहां तू ले चला
कि अधूरा मैं हूं तेरा
सिलसिला
.....
गुरुवार, 9 जून 2022
चन्द माहिए
चन्द माहिए-
1
जब जब घिरते बादल,
प्यासी धरती क्यों,
होने लगती पागल ?
:2:
भूले से कभी आते,
मेरी दुनिया में,
वादा तो निभा जाते।
:3:
इस मन में उलझन है,
धुँधला है जब तक,
यह मन का दरपन है।
:4:
जब छोड़ के जाना था,
फिर क्यों आए थे ?
क्या दिल बहलाना था ?
5
अब और कहाँ जाना,
तेरी आँखों का
यह छोड़ के मयखाना।
-आनन्द.पाठक-
शनिवार, 4 जून 2022
एक ग़ज़ल : तुम्हारी जालसाजी में उन्हें कुछ तो दिखा होगा
एक ग़ज़ल
तुम्हारी जालसाजी में उन्हें कुछ तो दिखा होगा ,
उन्हें कुछ तो सबूतों में, बयानों मे मिला होगा ।
बिना पूछॆ सफ़ाई में जो चाहे सो कहो, लेकिन-
धुआँ बिन आग का होता कहाँ ? तुमको पता होगा ।
तुम्हीं मुजरिम, तुम्ही मुन्सिफ़, गवाही में खड़े तुम ही,
सियासत की है मजबूरी ,तुम्हें करना पड़ा होगा ।
हमें तुम क्या समझते हो, हमे सच क्या नहीं मालूम?
"हरिशचन्दर’ नहीं हो तुम ,तुम्हें भी तो पता होगा ।
तुम्हारी झूठ की खेती, तुम्हारे झूठ का धन्धा ,
तुम्हारा "ऎड" टी0वी0 पर निरन्तर चल रहा होगा ।
वो कह कर तो यही आया 'बदलना है निज़ामत को'
ख़बर क्या थी कि "कुर्सी" के लिए अन्धा हुआ होगा ।
जहाँ अपनी सफ़ाई में सदाक़त ख़ुद क़सम खाती,
समझ लो झूठ की जानिब यक़ीनन फ़ैसला होगा ।
कहें हम क्या उसे ’आनन’, मुख़ौटॊं पर मुखौटे हैं ,
लिए मासूम सा चेहरा वो सबको छल रहा होगा ।
-आनन्द.पाठक--
शब्दार्थ
सदाक़त =सच्चाई
निज़ामत = शासन व्यवस्था
बुधवार, 1 जून 2022
उलझनों में दिल यूं पड़ा
ख्वाबों का सिलसिला
जब कभी चल पड़ा
मैं ज़मीन पे चलूं
आसमां में उडूं
उलझनों में ये दिल यूं पड़ा...
ख्वाहिशें थी मुझे तुम
जहां जब मिलो
हाथ थामे मुझे तुम
वहां ले चलो
दिन जहां पर ढले
शब जहां पर जगे
उस क्षितिज पे हो एक घर मेरा ...
ख्वाबों का सिलसिला जब कभी चल पड़ा
कहकशां हूं सितारा तुम
मुझ में पलो
हूं धनक आओ रंगो में
मेरे ढलो
स्याह से रतजगे
आंखों में अब पले
तेरे शानो पे हो सर मेरा ....
उलझनों में ये दिल यूं पड़ा...
ख्वाबों का सिलसिला
जब कभी चल पड़ा
उलझनों में ये दिल यूं पड़ा...