गुरुवार, 4 अगस्त 2022

एक ग़ज़ल : वक़्त देता वक़्त आने पर सज़ा है

 


एक ग़ज़ल 



वक़्त देता, वक़्त आने पर सज़ा है  ,

कौन इसकी मार से अबतक बचा है ।


रात-दिन शहनाइयाँ बजती जहाँ थीं ,

ख़ाक में ऎवान अब उनका पता है ।


तू जिसे अपना समझता, है न अपना,

आदमी में ’आदमीयत’ लापता है ।


दिल कहीं, सजदा कहीं, है दर किसी का,

यह दिखावा है ,छलावा और क्या है !


इज्तराब-ए-दिल में कितनी तिश्नगी है,

वो पस-ए-पर्दा  बख़ूबी जानता है   ।


क्या उसे ढूँढा कभी है दिल के अन्दर.

बारहा ,बाहर जिसे तू  ढूँढता  है ?


ज़िंदगी क्या है ! न इतना सोच ’आनन’

इशरत-ओ-ग़म से गुज़रता रास्ता है ।



-आनन्द.पाठक-


शब्दार्थ

ऎवान                = महल , प्रासाद

इज़्तराब-ए-दिल  =बेचैन दिल

तिश्नगी          = प्यास

पस-ए-पर्दा         = परदे के पीछॆ से

बारहा = बार बार 

इशरत-ओ-ग़म से     = सुख -दुख से


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