बुधवार, 26 अक्टूबर 2022

एक ग़ज़ल : चढ़ते दर्या को इक दिन

 


एक ग़ज़ल 


चढ़ते दर्या को इक दिन है जाना उतर,

जान कर भी तू अनजान है बेख़बर


प्यार मे हम हुए मुब्तिला इस तरह ,

बेखुदी मे न मिलती है अपनी खबर ।


यूँ ही साहिल पे आते नहीं खुद बखुद,

डूब कर ही कोई एक लाता  गुहर ।


या ख़ुदा ! यार मेरा सलामत रहे ,

ये बलाएँ कहीं मुड़ न जाएं उधर ।


अब न ताक़त रही, बस है चाहत बची,

आ भी जाओ तुम्हे देख लूँ इक नज़र ।


ये बहारें, फ़ज़ा, ये घटा, ये चमन ,

है बज़ाहिर उसी का कमाल-ए-हुनर ।


उसकॊ देखा नहीं, बस ख़यालात में ,

सबने देखा उसे अपनी अपनी नजर ।


खुल के जीना भी है एक तर्ज-ए-अमल,

आजमाना कभी देखना फिर असर ।


ज़िंदगी से परेशां हो ’आनन’ बहुत ,

क्या कभी तुमने ली ज़िंदगी की खबर ?



-आनन्द.पाठक- 


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