बुधवार, 14 फ़रवरी 2024

शबनम

 तुम्हारे बिना भी चल ही रही है ज़िंदगी,

मैं जी रही हूँ, हँस रही हूँ, खा-पी भी रही हूँ,

पर कभी कभी ये मुझे रुला ही जाती है ।


बेटे बहुएँ बहुत ख़्याल रखते हैं मेरा

 नाती पोते भी, कभी तो पूछ ही लेते हैं,

पर न जाने क्यों इन ऑंखों में फिर भी 

नमी आ ही जाती है 


जिन रास्तों पर हम तुम कभी चले थे साथ साथ

जब देखती हूं पेड़ पौधे, फूल और पंछी

क्या कहूँ ऑंखों में शबनम छा ही जाती है ।


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