गुरुवार, 22 अगस्त 2013

Shrimadbhagvat Gita (IIChapter ,Shlokas 46-50) ,with Kabir as Guest Artist

श्रीमदभगवत गीता दूसरा अध्याय (श्लोक ४६ -५० )

(४ ६ )ब्रह्म को तत्वत :जानने वालों के लिए वेदों की उतनी ही आवश्यकता रहती है ,जितनी महान सरोवर के प्राप्त होने पर एक छोटे जलाशय की। 

(४ ७ )केवल कर्म करना ही मनुष्य के वश में है ,कर्म फल नहीं। इसलिए तुम कर्म फल की आसक्ति में न फंसो तथा अपने कर्म का त्याग भी न करो। 

(४ ८ )हे धनंजय ,परमात्मा के ध्यान और चिंतन में स्थित होकर ,सभी प्रकार की आसक्तियों को त्यागकर ,तथा सफलता और असफलता में सम होकर ,अपने कर्तव्यों का भली भाँति पालन करो। मन का समत्व भाव में रहना ही योग कहलाता है। 

(४ ९ )कर्म योग से सकाम कर्म अत्यंत निकृष्ट है ,अत : हे अर्जुन तुम कर्म योगी बनो,क्योंकि फल की इच्छा रखने वालों को (असफलता का भय तथा )दुःख होता है। 

( ५ ० )कर्म फल की आसक्ति त्यागकर कर्म करने वाला निष्काम कर्म योगी इसी जीवन में पाप और पुण्य से मुक्त हो जाता है,इसलिए तुम निष्काम कर्म योगी बनो। (फल की आसक्ति से असफलता का भय होता है ,जिसके कारण कर्म अच्छी तरह नहीं हो पाता है। )निष्काम कर्म योग को ही कुशलता पूर्वक कर्म करना कहते हैं, तभी अधिकतम आउट पुट स्वत :ह प्राप्त होता है। 

विस्तारित भाव उपर्युक्त श्लोकों का :

जिस व्यक्ति को बहुत बड़ी पानी की झील मिल जाए अर्थात जिसने भगवान को जान लिया है उसके लिए छोटे से तालाब का क्या प्रयोजन रह जाता है। ऐसे ही ब्रह्म को जान लेने वाले के लिए शाश्त्रों  वेद  पुराणों  का भी क्या अर्थ रह जाता है। मुख्य वस्तु है परमात्मा ये वेद शाश्त्र भी उधर ही इशारा करते हैं। 

जब तक व्यक्ति को बड़ा ज्ञान प्राप्त नहीं होता वह छोटे ज्ञान (सांसारिक ज्ञान )से ही काम चला लेता है। जल ज्ञान का प्रतीक है और बड़ा जलाशय ईश्वर ज्ञान ,आध्यात्मिक ज्ञान का प्रतीक है। महापुरुषों  की वाणी ,शाश्त्र ,सत्संग सब सीढियां हैं जो परमात्मा की तरफ ही ले जाती हैं। 

जिस पर (कर्म फल पर )हमारा अधिकार नहीं है उसमें हमारी रूचि नहीं होनी चाहिए। वृक्ष को लगातार जल दोगे तो उसका परिणाम भी खुद से ही अच्छा आयेगा। कर्म न करने का आलस्य कभी न करना। फल के उद्देश्य को ही लेकर कर्म करना बहुत खतरनाक है।डॉकटरी की पढ़ाई कोई नक़ल मारके पूरी करेगा तो समाज के लिए बहुत खतरनाक हो जाएगा।  कर्म करने में ही हमें आनंद आना चाहिए। बच्चा अपनी मर्ज़ी से केवल आनंद के लिए खेलता है वर्जिश के लिए नहीं। वर्जिश तो खुद से ही हो जाती है। भोजन बनाने में गृहणी को जितना आनंद आयेगा भोजन उतना ही स्वादिष्ट बनेगा। 

हे अर्जुन सबसे पहले अपने मन को पवित्रता में स्थिर करो -योग युक्त होकर कर्म करो। भोजन  भी परोसने वाले को हाथ धोकर ही परोसना चाहिए। अपने हाथ धोकर ही मुझे भोजन परोसो। पहले मन को शुद्ध करो। भोगों की लालसा से हटो फिर अपने सब कर्मों को करो। जहां कहीं से भी तुम्हारे मन की डोर बंधी हुई है पहले उसको छोड़ो। जो समत्व है वही योग है। सुख दुःख में सम  भाव रखना व्यक्ति को विनम्र बनाता है। गरीबी अमीरी ,सुख दुःख में जो समान भाव बनाए रहेगा हर परिश्थिति में एक समान भाव बनाए रहेगा वही समत्व योगी है। जैसे व्यक्ति जीवन में धन संचय करता है वैसे ही धैर्य पूर्वक जीवन में अच्छाइयों का भी संचय करना चाहिए। अन्दर से एक समान होना चाहिए व्यक्ति को वही योग है।योगी है। 

तुम समता में शरण खोजो। बुद्धि की शरण जाओ।बुद्धि का ही करिश्मा है अभिनव प्रोद्योगिकी कटिंग एज टेक्नालाजी।  फल को चाहने वाले लोग क्षुद्र बुद्धि वाले हैं। निम्न कोटि के प्राणि हैं। तू अपनी बुद्धि में ही अपनी रक्षा का उपाय ढूंढ़ ।  समत्व बुद्धि युक्त होकर परमात्मा में जब व्यक्ति की बुद्धि स्थिर हो जाती है तब इस संसार की विषम वस्तुओं को वह स्वत : ही छोड़ देता है। कर्मों का कौशल्य ही योग है जैसे कोई आदिवासी मधुमख्खी के  छत्ते से शहद तो निकाल ले लेकिन दंश से बचा रहे मधुमख्खियों के। पाप पुण्य भाव पर ,हमारे इरादे पर हमारे  इंटेंशन पर ,हमारी नीयत पर निर्भर करता है सिर्फ कर्म पर नहीं। पहले तुम आध्यात्मिक जीवन से जुड़ जाओ फिर तुम योग से जुड़ जाओगे। 

ॐ शान्ति 

सन्दर्भ -सामिग्री :योगी आनंद जी का स्काइप पर क्लास (उत्तरी कैरोलिना ,दिनांकित २० अगस्त ,२०१३ ) 


साथ में पढ़िए 

कबीर :प्रतीक्षित दूसरी किश्त


 ( ८ )जो कछु किया सो तुम किया ,हौं किया कछु नाहिं ,


       काहू कहि जो मैं किया ,तुम ही थे मुझ मांहि। 

इस जगत में जो कुछ भी होता है वह ईश्वर की मर्जी से ही होता है। इस बात को जो अहंकार से दूर है वही जानता है।कबीर कहते हैं जो कुछ  भी किया उस परमात्मा ने ही किया। सांसारिकता की दृष्टि से भी मैं ने जो भी कुछ किया भी उसके पीछे भी कार्य शक्ति तुम्हारी ही थी। श्रेय लेने का मुझे अधिकार नहीं है। मैं ने जब कहा मैं ने किया वह भी तुम थे जो मेरे पीछे खड़े खड़े सब करवा रहे थे। 

  

   ( ९ ) जिनको साईं रंग दिया ,कभी न होय सुरंग ,
           
           जिन जिन पानी प़ाखरि   ,चढ़े सवाया रंग।  

जिनको परमात्मा ने अपनी भक्ति के रंग में रंग दिया है अपने नाम की बख्शीश दे दी है वह दोबारा इस संसार की अल्पकालिक अस्थाई मौज मस्ती में नहीं लौटते हैं। इधर उधर के भोग विलास में फिर वह नहीं पड़ते हैं ।परमात्मा के नाम सिमरन की यह जो धारा है उसमें स्नान करने से यह नाम का रंग फिर उतरता नहीं है। और भी सवाया हो जाता है। नाम के स्मरण से वह और भी परमात्मा की तरफ बढ़ता है। ठीक वैसे ही जैसे रंग दिए गए कपड़े  को  पानी  में डाल देने पर उसमें और  भी निखार आता है।संसार के प्रवाह में भी निकलने से फिर वह भक्ति का रंग कम नहीं होगा ,पक्के रंग की तरह चढ़ जाता है। 


  ( १० )ऊंचे पानी न टिके ,नीचे ही ठहराय ,

           नीचा होय तो भर पिये ,ऊंचा प्यासा जाय। 

पानी का स्वभाव यह है उसे भले मोटर (मशीन) से जितना ऊपर उठा लो वह लौट के नीचे ही आता है। पानी बरसता है पहाड़ों पर वहां  से बरस के फिर वह नीचे आता है ,फिर पृथ्वी में समा जाता है। पानी मनुष्य की विनम्रता का बाना है। अहंकार पर चढ़ा व्यक्ति सुख नहीं पाता है। अहंकार ज्ञान को नष्ट कर देता है जो पानी से भी पतला और तरल होता है। वह सब साधनों को भोग कर भी सुख नहीं पाता  है। तृप्त नहीं होता है। प्यासा ही रह जाता है। भगवान् की भक्ति में जो सिर झुकाके जीता है। परमात्मा की भक्ति का जल जिसके हृदय में रुक जाता है वह तृप्त हो जाता है। हृदय ही परमात्मा के नाम का स्थान है। परमात्मा के नाम का जो सुख है वह व्यक्ति अहंकार में रहके प्राप्त नहीं कर सकता। भक्ति का जल हृदय में बसाना पड़ता है। वही जल सुख शान्ति और तृप्ति प्रदान करता है। 

 ( १ १ )आठ पहर चौंसठ घड़ी ,मेरे और न कोय ,

            नैना माहिं तू बसे ,नींद को ठौर न होय। 

दिन के चार पहर होते हैं और तीन घंटे का एक पहर होता है। इस प्रकार बारह घंटे का दिन होता है। इसीप्रकार रात के भी चार पहर होते हैं। बारह घंटे की ही रात होती है। कुल मिला के  आठ पहर हो गए। एक पहर में आठ घड़ी  और आठ पहर में  चौसठ घड़ी हो गईं। सारा काल जो एक दिन और एक रात के बीच में बीतता है वही चौसठ घड़ी कहलाता है। हर नया दिन हमें यह स्मृति दिलाता है अब तुम्हारा नया जन्म हुआ है। सुसुप्ति (रात की नींद में )व्यक्ति सब भूल जाता है। परम शान्ति में होता है। आत्मा जब शरीर से काम लेते लेते थक जाती है तो सो जाती है। हर नए दिन में उठते ही अवलोकन करना चाहिए मैं ने कल क्या किया था। आठ पहर कैसे बिताये  थे।  

कबीर कहते हैं आठ पहर चौसठ घड़ी मेरा मन तो तुम्हारे में ही लगा रहता है। प्रभु आप ही मेरी वृत्ति मेरे चित्त में समाये रहते हैं। मेरी जिन आँखों में तुम आठ पहर बसते हो फिर उनमें नींद कहाँ से आयेगी। नींद करने का जो सांसारिक भाव है वह मुझे अब नहीं सुहाता है।

( १२ )कबीरा वैद (वैद्य ) बुलाया ,पकड़ के देखि बान्हि ,

         वैद न भेदन जानहिं ,सिर्फ कलेजे मांहि। 

सांसारिक नाड़िया वेद्य मेरे बारे में क्या जाने उसने मेरी नाड़ी (नव्ज़ )ही देखी। इस नाड़िया वैद्य को क्या पता मेरी लौ जिस से लगी है उसकी स्मृति में  ही मेरी आँखों  में आंसू आ गए हैं।

(ज़ारी )

ॐ शान्ति 


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    www.youtube.com/watch?v=R47AidjPeaU

    15 hours ago - Uploaded by Madhuban Murli Brahma Kumaris
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Photo: Swamiji at University of North Carolina



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