मंगलवार, 24 सितंबर 2013

जिंदगी की शाम





आँख से अब नहीं दिख रहा है जहाँ ,आज क्या हो रहा है मेरे संग यहाँ
माँ का रोना नहीं अब मैं सुन पा रहा ,कान मेरे ये दोनों क्यों बहरें हुए.

उम्र भर जिसको अपना मैं कहता रहा ,दूर जानो को बह मुझसे बहता रहा.
आग होती है क्या आज मालूम चला,जल रहा हूँ मैं चुपचाप ठहरे हुए.

शाम ज्यों धीरे धीरे सी ढलने लगी, छोंड तनहा मुझे भीड़ चलने लगी.
अब तो तन है धुंआ और मन है धुंआ ,आज बदल धुएँ के क्यों गहरे हुए..

ज्यों जिस्म का पूरा जलना हुआ,उस समय खुद से फिर मेरा मिलना हुआ
एक मुद्दत हुयी मुझको कैदी बने,मैनें जाना नहीं कब से पहरें हुए....

मदन मोहन सक्सेना

4 टिप्‍पणियां:

  1. ज्यों जिस्म का पूरा जलना हुआ,उस समय खुद से फिर मेरा मिलना हुआ
    एक मुद्दत हुयी मुझको कैदी बने,मैनें जाना नहीं कब से पहरें हुए....

    बहुत सुन्दर भाव और अर्थ पूर्ण प्रस्तुति।

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी यह रचना कल बुधवार (25-09-2013) को ब्लॉग प्रसारण : 127 पर लिंक की गई है कृपया पधारें.
    सादर
    सरिता भाटिया
    एक नजर इधर भी ''गुज़ारिश''

    जवाब देंहटाएं
  3. शाम ज्यों धीरे धीरे सी ढलने लगी, छोंड तनहा मुझे भीड़ चलने लगी.
    अब तो तन है धुंआ और मन है धुंआ ,आज बदल धुएँ के क्यों गहरे हुए..

    क्या लिख डाला.... अति सुन्दर

    जवाब देंहटाएं