रविवार, 22 सितंबर 2013

ठन गई:अटल बिहारी वाजपयी



                ठन गई!

मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा कोई इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका कोई वादा न था,

रास्ता रोककर वह खड़ी हो गई ।
यों लगा जिंदगी से बड़ी हो गई।

मौत की उम्र क्या दो पल भी नहीं,
जिंदगी-सिलसिला, आज कल की नहीं,
मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं

तू दबे पाव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर, फिर मुझे आजमा,
मौत से बेखबर, जिंदगी का सफर,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।

बात ऐसी नहीं कि कोई गम ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाकी है कोई गिला।

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किए,
आंधियों में जलाएं हैं बुझते दिए,

आज झकझोरता तेज तूफान है,
नाव भंवरों की बाहों में मेहमान है।

पार पाने का कायम मगर हौसला,
देख तूफां का तेवर तरी तन गई,
मौत से ठन गई!!

3 टिप्‍पणियां:

  1. बाजपेयी जी के जीवट के अनुरूप रचना। लिखी आपने तदानुभूति हमें भी हुई।

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  2. उत्तम रचना से रूबरू कराने के लिए धन्यबाद

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  3. सुन्दर प्रस्तुतीकरण -
    आभार भाई

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