सोमवार, 14 अक्टूबर 2013

इसीलिए मन की गति को रोकने वाले योग ध्यान असफल सिद्ध होते हैं। दूसरी तरफ रूप- ध्यान ,मन की शुद्धि का साधन है : या अनुरागी चित्त की गति समझे न कोय , ज्यों -ज्यों बूड़े श्याम रंग ,त्यों त्यों उज्जल होय।

रूप ध्यान क्या है ?


सब साधन जनु देह सम ,रूप ध्यान जनु प्रान ,

खात ,गीध अरु स्वान जनु ,कामादिक शव मान (भक्ति शतक १० )


यदि सभी प्रकार के ध्यान ,योग ,मनन को शरीर मेडीटेशन कहा जाए तब रूप ध्यान को ध्यान -मनन  का प्राण (प्राण वायु ) माना जाएगा। जिसप्रकार निष्प्राण शरीर स्वानों और  गिद्धों के  खाद्य के समान  है इसी प्रकार रूप ध्यान से शून्य साधना को फिर काम ,क्रोध ,लोभ -लालच ,और ईर्ष्या खा जाती है।

अस्थिर मन स्वभावतय: इधर उधर (भौतक साधनों ,दुनिया के तकाजों ,इसकी मेरी ,तेरी मेरी की तरफ )भागता है.टिकता नहीं है साधना में। मन खाली नहीं रहता है। इस या उस फितूर में उलझा रहता है। मन को खाली करना शून्य करना विचार शून्यता की ओर  जबरी  ले जाना चित्त को स्थिर बनाता है चित्त नष्ट भी हो सकता है ऐसी साधना से। फिर साधना किस चीज़ की ,की जायेगी ?यह ऐसे ही है जैसे सरपट दौड़ती साइकिल को आप ब्रेक लगादें। ऐसा करने पर बाएँ (वाम )या फिर  दाएँ (दक्षिण )गिरने की संभावना पैदा हो जाती है। लेकिन यदि आप हैंडिल  मोड़ कर साइकिल की दिशा बदल दें ,साइकिल आगे की ओर नहीं जाएगी । हैन्डिल  की दिशा में ही जाएगी। 


इसीलिए मन की गति को रोकने वाले योग ध्यान असफल सिद्ध होते हैं। 

दूसरी तरफ रूप- ध्यान ,मन की शुद्धि का साधन है :

या अनुरागी चित्त की गति समझे न कोय ,

ज्यों -ज्यों बूड़े श्याम रंग ,त्यों त्यों उज्जल होय। 

भक्ति योग में मन को बलपूर्वक शून्य नहीं किया जाता है ,इसे भगवान् की ओर  मोड़ा जाता है।अभ्यास से यह संभव है। अभ्यास को ही अपना गुरु बनाओ।  

ईश्वर पर एकाग्र कैसे करें मन को ?

अपने अनंत जन्मों में हम अपने को शरीर ही बूझकर व्यवहार करते आये हैं। शरीर से ही हमारा साबका पडा है। सब सम्बन्ध शरीर से ही बनाए हैं हमने माँ ,बाप ,बेटा बेटी ,दोस्त ,दुश्मन ,शिक्षक आदि। 

हम शरीर धारियों की तरफ ही आकृष्ठ हुए हैं। किसी सुन्दर चित्र को देख हम रुक जाते हैं। प्रकृति के सुन्दर नज़ारे हमें मन्त्र मुग्ध कर देते हैं। मन का सहज गुण ,सहज प्रवृत्ति ,बरसों का संस्कार है- रूप पर रीझना।रूप को पूजना शायरी करना। तसव्वुर में माशूका को लाना। 

इसीलिए पहले भगवान् के नाम -रूप को जो भी आपको प्रिय हो प्रेम करो फिर उसे अपनी साधना का विषय बनाओ। (परकीया प्रेम सा गाढा   बे -चैन करने वाला हो ये प्रेम ,सोते उठते जिसका ध्यान रहता है). मन कहे -

तुम मेरे पास होते हो जब कोई दूसरा नहीं होता। 

इसीलिए सूफी संत भगवान् से वैयक्तिक सम्बन्ध बनाते हैं -अपनी बहुरिया कहते हैं उसे। ऱाधा और मीरा का प्रेम ऐसा ही है -

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ,

जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई। 

श्याम रंग में रंगी चुनरिया अब रंग दूजो भावे न ,

जिन नैनन में श्याम बसे हों ,और दूसरो आवे न। 

यही है राधा और गोपी- भाव। 

यदि हम  भगवान के सिर्फ नाम का स्मरण करें सिर्फ "ॐ "का जाप करें ,ॐ नमोशिवाय ,अहम ब्रह्मास्मि कहते रहें ,मन में वह मिठास आसानी से  पैदा न होगी।लेकिन यदि उस आराध्य का अप्रतिम रूप सामने हो ,चित्त में हो मन फिर उधर सहज ही आजायेगा। इसे ही रूप -ध्यान कहा जाता है। इसी के बारे  में जगद्गुरु कृपालुजी महाराज कहते हैं :

सब साधन जनु देह सम ,रूप ध्यान जनु प्रान ,

खात गीध अरु स्वान जनु ,कादिक शव मान।  

पारिभाषिक शब्द :

Aparaa- prakriti:the inferior material energy of the Lord (matter,material energy)

Archaa -vigraha(अर्चा -विग्रह):the form of God manifested through material elements ,as in a painting or statue of Krishna worshiped in a home or temple .Present in this form ,the Lord personally accepts worship from His devotees.

Bhakti :Devotional service to God .

  

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार (15-10-2013) "रावण जिंदा रह गया..!" (मंगलवासरीय चर्चाःअंक1399) में "मयंक का कोना" पर भी है!
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का उपयोग किसी पत्रिका में किया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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