सोमवार, 21 अक्टूबर 2013

श्याम स्मृति-- साहित्य की विंडम्बना..... डा श्याम गुप्त ..

                    श्याम स्मृति-- साहित्य की विंडम्बना.....

       मुझे लगता है यह विडम्बना ही है ... कि एक ओर तो हम एकाक्षरी-द्व्याक्षरी आदि छंद के रूप में हर छंद आखर-शब्द को ही छंद मानते हैं ....बालक द्वारा प्रथम शब्द..माँ ..एक छंद ही है आदि आदि .....दूसरी ओर मुक्त छंद, अतुकांत छंद आदि को अछूत | वस्तुतः हमारी सनातन छंद परम्परा तो देववाणी संस्कृति के अतुकांत छंदों से ही है | जब संस्कृत भाषा ज्ञान के तप, साधना, धैर्य की कमी के कारण तालबद्धता संगीतमयता की विलुप्ति से संस्कृत का जनसाधारण द्वारा  प्रयोग में ह्रास हुआ, जनभाषा प्राकृत अपभ्रंश से होते हुए हिन्दी तक आई तो तुकांत छंदों का आविर्भाव हुआ और तुकांत कविता मुख्य हुई | परन्तु हिन्दी साहित्यकारों द्वारा मुक्तछंद काव्य अतुकांत रचनाओं की प्रस्तुति भी होती रही| मैथिलीशरण गुप्त जी के खंडकाव्य सिद्धराज में देखें

तो फिर-
सिद्धराज क्या हुआ
मर गया हाय,
तुम पापी प्रेत उसके |  

                         कविता का पतन तकनीक के कारण नहीं हुआ अपितु भाव दोषों के कारण हुआ| कथ्यों विषय-भाव का तादाम्य, तथ्यों की वास्तविकता सत्यता, सहज भाषा-शैली स्पष्ट सम्प्रेषणता का गौण होजाना एवं तकनीक छंद-तकनीक, तुकांत-अतुकांत के विवाद, विषय-ज्ञान की अल्पज्ञता, क्लिष्ट शिल्प नए-नए शब्दों का आडम्बर  आदि के कारण |  स्वतन्त्रता के पश्चात हम काव्य के विषय चुनने में भटक गए कोई लक्ष्य ही नहीं रहा | पाश्चात्य हलचल की चकाचौंध में हम पूर्व पश्चिम के जीवन तत्वों व्यवहार में तादाम्य समन्वय नहीं कर पाए | भौतिक सुखों धनागम के ताने-बाने, उपकरण, साधन चुनते-बुनते हम साहित्य में भी अपने स्वदेशी विषय-भावों से भटककर जीवन के वास्तविक आनंद से दूर होते गए | विद्वानों, कवियों, साहित्यकारों, मनीषियों ने अपने कर्त्तव्य नहीं निभाये | समाज के इसी व्यतिक्रम ने व्यक्ति को कविता साहित्य से क्या दूर किया जीवन से ही दूर कर दिया | और चक्रीय प्रतिक्रया-व्यवस्थानुसार स्वयं साहित्य भी व्यक्ति से दूर जाने लगा |  


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें