सोमवार, 21 अक्टूबर 2013

ज्ञान की एक किस्म और है शाब्दिक ज्ञान। ज्ञान को उठाके मन में रख लिया मष्तिष्क में सहेज लिया उसे जीवन में धारण नहीं किया उतारा नहीं उसे अपने कृत्यों में। यही ज्ञान अहंकार का सबब बनता है

ज्ञान योग की आधार भूमि अद्वैतवाद है। यानी आत्मा  और ब्रह्म अलग अलग नहीं हैं माया 

मिथ्या है (जीव के अज्ञान की परछाईं है )और इसका जीव पर से आवरण हट जाने पर जीव  ब्रह्म 

को प्राप्त होता है। ज्ञान योगी गायेगा :

स्वमेव: माता च पिता स्वमेव: ,स्वमेव: बंधू च सखा स्वमेव: ,

स्वमेव: विद्या च द्र्वणम स्वमेव सर्वंम स्वयं देव देवै। 

ज्ञानी ब्रह्म को प्राप्त होने पर स्वयं को सनातन निर्गुण निराकार ब्रह्म ही मान लेता है।

नितांत नि :संग है ज्ञान योग का दायरा। यहाँ सवारी अपने सामान की खुद जिम्मेवार है। ज्ञान 

योगी 

निरंतर अभ्यास करेगा -मैं शरीर नहीं हूँ ,न ही तो मैं मन हूँ और न बुद्धि और न ज्ञानेन्द्रिय न 

अहंकार।स्वाध्याय उसका आधार बनेगा। गुरु और उपनिषद उसके  सहायक पथ प्रदर्शक की 

भूमिका में ही आयेंगे। करना सब कुछ उसे ही है। ज्ञान का चर्वण ,जुगाली  और पाचन दोनों। फिर

 धीरे धीरे 

उसकी भौतिक ज़रूरीयात कमतर होती जायेंगी। वह स्वयं को जान सकेगा। 

अह्म् ब्रह्मास्मि 

भगत (भक्त )अपने आपको ईश्वर का ही अंश मानता है यही भक्ति - मार्ग की आधारशिला है। 

बुनियादी बात है। जीव इसलिए माया (भगवान् की भौतिक ऊर्जा ,material energy )के हाथों पिट 

रहा है क्योंकि इसने भगवान् की तरफ पीठ कर ली है।  इसीलिए आवागमन के चक्र में आबिद्ध है। 


फंसा हुआ है। यहाँ माया मिथ्या नहीं है भगवान् की दासी है। हम उसके लिए काम क्यों करें सीधे 

भगवान् के लिए क्यों न सभी कर्म करें। 

मेरी रजा वही है जिसमें है तू रजामंद।

परिपूर्ण समर्पण जीव का भगवान् में उसे उसकी अक्षुण कृपा का पात्र  बना देता है। भगवान् के 

दिव्य ज्ञान दिव्य प्रेम ,दिव्य आनंद की प्राप्ति का एक मात्र यही तरीका है सीधा सच्चा सरल।

काम  सभी वही करते रहना है सिर्फ उन्हें जिनके लिए ये काम किये जा रहे हैं भगवान् का मान 

लेना है और हर काम को भगवान की ख़ुशी के लिए किया गया मान लेना है।  

परकीया प्रेम जैसी आंच और छटपटाहट चाहिए हर दम उसी का ख्याल रहे कैसे जा मिलूं उससे 

क्या करूं इस प्रेम मिलन  के लिए उठते बैठते नहाते धोते बस उसी  का ध्यान रहे।

हम वहां हैं जहां से हमें  खुद की खबर नहीं।  

ग़ालिब वो पूछते हैं मेरा हाल ,

कोई हमें बतलाये के हम बतलाएं क्या ?

इसके लिए मन की शुद्धि चाहिए। पावन (दिव्य)प्रेम ही इस मन को परिशोधित कर सकता है। मन 

की नदी परमात्मा की तरफ ही ले जाए बस। जो भी मैं देखूं वह बस तू हो तेरा हो तू ही मुझे हर 

तरफ दिखलाई दे।मन अपने में पूर्ण एक वस्तु है जो रौरव नरक को भी स्वर्ग बना सकती है।  

लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल ,

लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल। 

विचार के उद्दात होने पर मन -पाखी उड़के बस उसी के गिर्द रहता है।  

जैसे उड़ी  जहाज को पंछी ,फिरि उड़ी जहाज पे आवे.

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे। 

यहाँ भक्ति मार्ग में  आत्मा परमात्मा को प्राप्त होती है परमात्मा नहीं बन जाती है। परमात्मा के 

धाम को जाती है। दिव्य शरीर धारण कर उन्हीं दिव्य लोकों में फिर विचरती है। एक नहीं हैं वैकुंठ 

अनेक हैं। 

भक्ति मार्ग में सब जिम्मेवारी परमात्मा की ही है आत्मा निश्चिन्त है -जेहि विधि राखे राम ,तेहि 

विधि रहिये। यहाँ जीव बिल्ली के बच्चों की तरह है जिन्हें बिल्ली मुंह में उठाके सात घरों का रास्ता 

दिखाने खुद ले जाती है। 

ज्ञान मार्ग में जीव उस बंदरिया के बच्चे की तरह हैं जिसे खुद कसके अपनी पकड़ बनाए रहनी है 

माँ बंदरिया की कूद फांद के दौरान।चढ़े तो चाखे प्रेम रस ,गिरे तो चकना चूर। ज्ञान मार्ग एक कठोर निस्संग साधना है 


जहां फिसलन बहुत है माया कभी भी गले से पकड़ के ले जा सकती है। यहाँ जीव ही ब्रह्म है 

समर्पण का प्रश्न ही कहाँ है। यहाँ तो जीव खुद पर अपनी ही कृपा चाहता है परमात्मा की कृपा का 

वह आकांक्षी  ही नहीं है।खुदमुख्त्यार बना हुआ  है वह तो।

भक्ति  मार्ग में जीव को भगवान् का परमसुरक्षा का कवच मिलता है। यह कवच एनएसजी की 

तरह भेद्य नहीं है।


 भक्ति भगत को विनय सिखाती है ज्ञान अहंकार पैदा कर सकता है। खुद 

के ब्रह्म होने का 


अहंकार सबसे बड़ा अहंकार होता होगा। 

भारतीय दर्शन में अक्सर भक्ति और ज्ञान योग की परस्पर श्रेष्ठता को लेकर विमर्श चलता रहा है। अद्वैत और द्वैत वाद के अनुगामी 

,विशिष्ठ अद्वैत वाद ,विशुद्ध अद्वैत वाद ,द्वैत -अ-द्वैत  वाद,अचिन्त्य -भेदाभेदवाद अपने अपने मतों को  आग्रह पूर्वक कहते  रहे 

हैं। 

संक्षेप में विस्तार में जाए बिना इस विषय से पार पाना मुश्किल है भक्ति और ज्ञान परस्पर सम्बद्ध हैं। एक दूसरे के पोषक और 

संवर्धक ही हैं। मान लीजिये 

कोई हमें तोहफे में एक गहना लाके देता है जिसके प्रति हम उदासीनता दिखलाते हैं लेकिन जब हमें यह पता चलता है यह परिशुद्ध 

सोने 

का बना है बीच बीच में इसमें असली हीरे के नग भी जड़े  हैं हमारे लिए वही बहुत कीमती हो जाता है। 

एक और उदाहरण लीजिए आपके जन्म दिन पर सब आकर्षक लोकलुभाऊ तोहफे लेकर आरहे हैं और कोई भला मानस एक पुराने से 

कपडे में कुछ लपेट कर आपको तोहफे के रूप में दे जाए आप नाक भौं सिकोड़ लेंगे -मन में सोचते हुए भला ये भी कोई देने की चीज़ है 

लेकिन जब सब तोहफों के साथ उसे खोलकर देखेंगे और पता चलेगा इसमें दस लाख  डॉलर रखें हैं तब वही तोहफा आपको सबसे 

प्यारा हो जाएगा। ज्ञान प्राप्त होने पर आपके लिए उस मामूली कपड़े  की कीमत एक दम से बढ़ गई। ठीक ऐसे ही जब हमें  भगवान् 

के दिव्य गुणों और और नाम -रूप उससे हमारे सनातन सम्बन्धों का भान होता है हमारी भक्ति भावना प्रगाढ़ होने लगती है। परम 

ज्ञान अनुराग पैदा करता है। जैसे ही आपको पता चलता है यह श्रीराधा रानी तो कृष्ण की भी आराध्या हैं आप भाव विभोर होकर गाने 

लगते हैं -

आरती प्रीतम प्यारी की ,कि नथवारी बनवारी की ;

भक्तिरस सागर में डूबने उतराने पर भगवान् हमें अनेक अनुभूतियाँ कराने लगते हैं। अनुभव होने लगता है हमको  अपने ही हृदय 

प्रदेश 

में उसकी सत्ता का ,दिव्यता का। परम सौंदर्य का। भक्ति हमें ऐसे में सहज  ही ज्ञान की ओर  ले जाती है। इसप्रकार दोनों का परस्पर 

संवर्धक सहजीवन है। 

ज्ञानयोग और ज्ञान में  हालाकि बहुत फर्क है।ज्ञान योग साधना का एक मार्ग है जो विशेष दर्शन पर आधारित है। यहाँ आत्मा ही 

परमात्मा है आत्मा ज्ञान प्राप्त करना खुद को बूझना सर्वोपरि लक्ष्य है। भक्ति मार्ग का साधक इसके ठीक विपरीत परमात्मा से 

खासुल -ख़ास सम्बन्ध जोड़ता है। वह उसके रूप की नाम की गुणों आराधना करता है उसी को सर्वोच्च मानता है। परमात्मा उसके ईष्ट 

देव हैं। उसके लिए परमात्मा स्पर्श्य है उस शिशु की तरह जिसे माँ गोदी में खिलाती है। 

यशोदा हरि पालने झुलावे 

यहाँ प्रेम आधारित  सम्बन्ध ही सर्वोपरि  हैं  या फिर वह तुलसीदास की दास्य भाव की भक्ति है। 

ज्ञानयोगी भगवान् की पूजा अर्चना को निचले दर्जे की मानता है। वह मन को बूझता है खाली करता है मन को शून्य करता है सांस की 

आवाजाही पर केन्द्रित कर ,भ्रूमध्य पर टिकाकर या फिर किसी और विध। साधना का यह दुस्साध्य मार्ग है यहाँ कृपा भी अपने पर खुद 

ही करनी है। प्रभु कृपा की यहाँ न याचना है और न वह प्राप्त होती  है. 

यहाँ तो मन के ही नष्ट होने का ख़तरा है शून्य होते होते कहीं वह बिला ही न जाए शून्य में। मन तो वैसे भी भौतिक ऊर्जा का बना 

हुआ है मैटीरियल एनर्जी की निर्मिती है। और मैटीरियल  एनर्जी भगवान् की दासी है उसकी एक शक्ति है उसकी कृपा के बिना इसे 

(मन )जीत पाना मुश्किल है। 

पातंजलि   बारहा कहते हैं :

ईश्वर प्राणिधानात (योगदर्शन )

उसके प्रति समर्पण के बिना उसकी न तो कृपा ही प्राप्त होगी न मन को जीत पायेगा ये जीव। इसलिए ज्ञानयोग के पथ पर भी भक्ति 

ज़रूरी है। 

ज्ञान की एक किस्म और है शाब्दिक ज्ञान। ज्ञान को उठाके मन  में रख लिया मष्तिष्क में सहेज लिया उसे जीवन में धारण नहीं किया 

उतारा नहीं उसे अपने कृत्यों में। यही ज्ञान अहंकार का सबब बनता है। क्योंकि ज्ञान मस्तिष्क में रखने से कुछ भला नहीं होता। हाई 

वोल्टेज केबिल सा है शुद्ध निरपेक्ष ज्ञान। 

(ज़ारी )

(भक्ति और ज्ञानयोग एक दूसरे  के संपूरक हैं 

अगली क़िस्त में पढ़िए भक्ति के बारे में अद्वैतवाद के 

प्रवर्तक जगद्गुरु शंकराचार्य के विचार )

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  1. BHAKTI SHATAK & SWAMI MUKUNDANANDA - YouTube

    www.youtube.com/watch?v=2W1VgX4VI4I

    Jan 17, 2008 - Uploaded by GL Sahni
    Swami Mukundananda is one of the most learned disciples of ...Thank you for posting the pravachan by ...

  2. How to attain Para Bhakti (Divine Love) by Swami Mukundananda- 1/6

    www.youtube.com/watch?v=DQ-Og5aRTY0

    May 22, 2012 - Uploaded by JKYog Videos [Swami Mukundananda]
    "Jo Piya Ruchi Maha Ruchi Rakhey" is a beautiful keertan written by Jagadguru Shree Kripaluji ...

  3. How to attain Para Bhakti (Divine Love) by Swami Mukundananda- 2/6

    www.youtube.com/watch?v=-C3FjCm0JvA

    May 22, 2012 - Uploaded by JKYog Videos [Swami Mukundananda]
    JKYog Videos [Swami Mukundananda]·177 videos ....JAGADGURU KRIPALUJI MAHAPRABHU'S ...




1 टिप्पणी:

  1. सही कहा....इसे जानकारी, तथ्यज्ञान व नोलेज .कहते हैं .जिसे अद्यात्म में अज्ञान कहा गया है .........जो ज्ञान व लर्निंग से भिन्न है.....

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