मंगलवार, 29 अक्टूबर 2013

गजल

मेरे माता पिता ही तीर्थ हैं हर धाम से पहले

चला थामे मैं उँगली उनकी नित हर काम से पहले


उठा कर भाल मै चिरता चला हर घूप जीवन का,       

बना जो करते सूरज सा पिता हर शाम से पहले


झुकाया सिर कहां मैने कही भी धूप से थक कर,    

घनेरी छांव बन जाते पिता हर घाम से पहले   


सुना है पर कहीं देखा नही भगवान इस जग में

पिता सा जो चले हर काम के अंजाम से पहले


पिताजी कहते मुझसे पुत्र तुम अच्छे से करना काम
तुम्हारा नाम भी आएगा मेरे नाम से पहले   

5 टिप्‍पणियां:

  1. झुकाया सिर कहां मैने कही भी धूप से थक कर,

    घनेरी छांव बन जाते पिता हर घाम से पहले


    सुना है पर कहीं देखा नही भगवान इस जग में

    पिता सा जो चले हर काम के अंजाम से पहले


    पिताजी कहते मुझसे पुत्र तुम अच्छे से करना काम
    तुम्हारा नाम भी आएगा मेरे नाम से पहले
    माँ पर तो सब लिखते है परन्तु पिता का योगदान को आपने बखूबी बयां किया है -आभार
    नई पोस्ट सपना और मैं (नायिका )

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  2. आदरणीय आपने रचना को मान दिया । आप जैसे रचनाकार के आशीष से मै धन्य हो गया । आपका सादर आभार

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (30-10-2013) त्योहारों का मौसम ( चर्चा - 1401 ) में "मयंक का कोना" पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का उपयोग किसी पत्रिका में किया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. बहुत खूब ... मतला ही लाजवाब है पूरी गज़ल तो कमाल है ..

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    1. आदरणीय दिगम्बरजी इस प्रयास को सराहने के लिये तहेदिल से शुक्रिया

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