शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

भूल गये आंसू के अक्षर, आहिस्ता-आहिस्ता लोग

भूल गये आंसू के अक्षर, आहिस्ता-आहिस्ता लोग।
होते गये फूल से पत्थर, आहिस्ता-आहिस्ता लोग।।
सामानों की भीड जुटाकर, गुम हैं खेल-खिलौनों में।
रिश्तों की गरमाहट खोकर, आहिस्ता-आहिस्ता लोग।।
मुश्तैदी से करते थे जो गुलशन की रखवाली कल।
बन बैठे खुश्बू के तस्कर, आहिस्ता-आहिस्ता लोग।।
चौपालें सूनी-सूनी हैं, मिलना जुलना बंद हुआ।
सिमट गये कमरों के अन्दर, आहिस्ता-आहिस्ता लोग।।
बाहर है मुस्कान लबों पर, भीतर-भीतर टूट गये।
बोझ तले ख्वाबों के दबकर, आहिस्ता-आहिस्ता लोग।।

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज शनिवार को (09-11-2013) गंगे ! : चर्चामंच : चर्चा अंक : 1424 "मयंक का कोना" पर भी होगी!
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    छठ पूजा की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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