रविवार, 18 मई 2014

बाग देख कर बागवाँ को---पथिकअनजाना-605 वीं पोस्ट





खिलता देख कर बाग को बागवाँ को हर सांस में

रूहानी जिस्मानी  खुशियों  से  सरोबार करजाती हैं
हाथों से खिसकता हुआ  बाग देख कर बागवाँ को
रूहानी जिस्मानी दर्दों गमों से वो रंजोबार करती हैं
यह लगाव भी क्या नामुराद दूरियाँ कर देती बर्बाद
लगाव खुदा से जिस्म से मानशान ,जान-पहचान से
हंसी आती भागते जिसके पीछे पूछते न हमें मान से
कहे पथिक अनजाना जिन्दगी सिफर पर गुजरती हैं
हर अगला क्षण अंधा मोड छोडते न फिर भी आस हैं

पथिक अनजाना

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