शनिवार, 15 नवंबर 2014

शिविर लगाकर जान लेने का तमाशा बंद होना चाहिए

छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में नसबंदी के बाद हुई 13 महिलाओं की मौत देश ही नहीं विदेशी मीडिया की सुर्खियां बना हुआ है। इस घटना के बाद हर कोई यह जानने की कोशिश कर रहा है कि आखिर इसके लिए असली गुनाहगार कौन है। इसे लेकर राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों ने अपनी भूमिका अदा करनी शुरु की है। छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि देश के  अन्य राज्यों में परिवार नियोजन कार्यक्रम के अन्तर्गत लगाए जा रहे नसबंदी शिविरों की हकीकत जानेंगे तो आप यही कहेंगे कि  ऐसी घटनाओं के लिए सीधे तौर पर बदतर स्वास्थ्य ढांचा ही असली गुनाहगार है। इस ढांचे को बदतर बनाने में ढांचे के नियंत्रणकर्ता और चिकित्सक समाज को बराबर का दोषी कहा जाय तो गलत नहीं होगा। हम आपका ध्यान पखवारे भर में कई राज्यों में लगाए गए नसबंदी शिविर पर डालें तो देखेंगे कि शिविरों में किस तरह से मानवाधिकारों का हनन किया गया है। 8 नवंबर 2014 को छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल के गृह जनपद बिलासपुर के गौरेला और कानन पेंडारी में नसबंदी शिविर का आयोजन किया गया। यह शिविर जिस अस्पताल में लगाया गया, वह पिछले आठ महीने से बंद रहा। आॅपरेशन थिएटर पूरी तरह से बदहाल रहा। बावजूद इसके भी यहां सर्जन डा. आर.के. गुप्ता ने महज छह घंटे के भीतर 83 महिलाओं की नसबंदी का आॅपरेशन कर दिया। 13 नवंबर 2014 को उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले में सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र धनौरा में नसबंदी शिविर का आयोजन किया गया। इस शिविर में 4 घंटे में 78 महिलाओं की नसबंदी का आॅपरेशन कर दिया गया। 13 नवंबर 2014 को ही उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले में प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र नेबुआ नौरंगिया में नसबंदी शिविर का आयोजन किया गया। यहां केवल 2 घंटे में चिकित्सक ने 42 महिलाओं की नसबंदी का आॅपरेशन किया। मध्य प्रदेश के सागर जिले के  मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी आर.सी. जैन ने नवंबर 2014 के लिए सात कॉलम का महिला-पुरुष फिक्स डे कैंप कैलेन्डर तैयार किया है। इस कैलेन्डर के मुताबिक उन्होंने एक सर्जन को एक दिन में 400 नसबंदी के आॅपरेशनक करने का लक्ष्य सौंपा है। अगर सर्जन नियमानुसार प्रतिदिन आठ घंटे की ड्यूटी करता है और नान स्टॉप नसबंदी के आॅपरेशन करता है तो एक नसबंदी का आॅपरेशन करने में उसे 1 मिनट 12 सेकंड का समय लगेगा। आप समझ गए होंगे कि नसबंदी कराने के लिए आने वाली महिलाओं के साथ इन शिविरों में जानवरों जैसा सुलूक किया जा रहा है। मानवाधिकारों का किस कदर हनन किया जा रहा है। ऐसे शिविरों में प्राय: देखने को मिलता है कि नसबंदी कराने वाली महिलाओं को बिस्तर तक नसीब नहीं होता। उन्हें फर्श पर ही लिटा दिया जाता है। आखिर इसके लिए बदतर स्वास्थ्य ढांचा जिम्मेदार नहीं है तो और क्या है। नियम के अनुसार एक सर्जन एक दिन में अधिकतम 30 नसबंदी के आॅपरेशन ही कर सकता है। प्रति 10 नसबंदी के आॅपरेशन के बाद उपकरण का स्ट्रलाइज करना पड़ता है। उपकरण को स्ट्रलाइज करने में तकरीबन 30 मिनट का समय लगता है। मेडिकल शब्दावली में महिलाओं की नसबंदी को ट्यूबेक्टमी और पुरुषों की नसबंदी को वैसेक्टमी कहते हैं। ट्यूबेक्टमी में सिर्फ बीस मिनट लगते हैं, लेकिन किसी अन्य अंग में चोट या संक्रमण का खतरा काफी रहता है। इसमें अक्सर गुर्दा खराब होने या जानलेवा अंदरूनी रक्तस्राव की घटनाएं देखी गई हैं। आॅपरेशन में काफी सावधानी की जरूरत पड़ती है और आॅपरेशन के बाद मरीज की कई दिनों तक मेडिकल देखरेख जरूरी है। शिविरों में की जाने वाली सामूहिक नसबंदी के लिए ट्यूबेक्टमी का चुनाव बिल्कुल गलत है। इसमें औरतों की मौत की घटनाएं पहले भी घट चुकी हैं, लेकिन किसी भी राज्य सरकार ने इन घटनाओं से कोई सबक नहीं लिया। महिलाओं को बहला-फुसलाकर, कुछ पैसे देकर या दबाव डालकर उनकी जिंदगी से खेलने का यह सिलसिला जारी है। राज्यों में स्वास्थ्य मंत्रालय नसबंदी का लक्ष्य निर्धारित करता है। सो टारगेट पूरा करने के लिए महिलाएं ट्रकों में भर-भर कर कैंपों में लाई जाती हैं। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि देश में साल 2010-11 के दौरान कुल 50 लाख नसबंदियां की गईं, जिनमें 95.6 फीसद महिलाएं थीं।  ऐसे में साफ है कि चिकित्सकों के साथ ही स्वास्थ्य महकमे का लक्ष्य बेहतर सुविधा प्रदान करना नहीं बल्कि अधिक से अधिक आंकड़े बनाकर वाहवाही लूटना है। छत्तीसगढ़ की घटना ने विश्व स्तर पर भारत की बदतर स्वास्थ्य ढांचे को लेकर बदनामी की है। अमरीका से लेकर आस्ट्रेलिया तक की मीडिया ने इस घटना की निन्दा की है। न्यूयार्क टाइम्स ने लिखा है कि परिवार नियोजन के लक्ष्य को हड़बड़ी में पूरा करने के जिला ताबड़तोड़ आॅपरेशन किए गए। इसे डॉक्टरों की बड़ी भूल कहा जा सकता है। स्काय न्यूज ने लिखा है कि यह एक बड़ी लापरवाही है। लक्ष्य पूरा करने के लिए साफ सफाई को पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने नसबंदी कांड पर दुख जताते हुए कहा है भारत के परिवार नियोजन से जुड़ी संस्थाओं को मानवाधिकार कानूने को पालन सुनिश्चित कराना चाहिए।  रायटर्स ने इसे गंभीर हादसा बताया है। दो साल पहले भारत की संसद में तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री ने बताया था कि 2009 से 2012 के बीच सरकार ने नसबंदी के बाद 568 मौतों पर 51 करोड़ रुपए का मुआवजा दिया है। सिडनी मार्निंग हेराल्ड ने लिखा है कि नसबंदी से मौतें पब्लिक हेल्थ सिस्टम की चरमराती व्यवस्था को उजागर करती हैं। छत्तीसगढ़ की गरीब परिवार की औरतों की जिंदगी के साथ क्रूर खेल खेला गया। बीबीसी ने टिप्पड़ी की है कि नसबंदी के लिए डॉक्टरों पर लक्ष्य पूरा करने का दबाव था। यह घटना भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था को बड़ा झटका है। 14 नवंबर 2014 को भारत के स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने साफ किया कि नसबंदी का कार्यक्रम लक्ष्य पूरा करने का कोई कार्यक्रम नहीं है। इस तरह से देखा जाय तो नसबंदी शिविरों में महिलाओं के साथ हो रही क्रूरता प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए सबसे बड़ा झटका है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की इच्छा है कि पूरे स्वास्थ्य महकमे में आमूल-चूल परिवर्तन नजर आए। ढांचागत कमियों को दूर किया जाए। शायद इसी मंशा से उन्होंने केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री रहे डॉ हर्षवर्धन से यह मंत्रालय लेकर जेपी नड्डा को जिम्मेदारी सौंपी है। जो परिस्थितियां नजर आ रही हैं उससे साफ नजर आता है कि केंद्र सरकार को पहलकदमी लेकर महिलाओं की सामूहिक नसबंदी पर पूरी तरह रोक लगा देनी चाहिए। कोई महिला निजी तौर पर इसे कराना चाहे तो पूरी तैयारी और सावधानी के साथ उसका आॅपरेशन किया जाए, लेकिन शिविर लगाकर उनकी जान लेने का यह तमाशा बंद होना चाहिए। जनसंख्या नियंत्रण जरूरी है, लेकिन इसके लिए बेहतर स्वास्थ्य ढांचा विकसित करना होगा और लोगों में जागरूकता बढ़ानी होगी।

2 टिप्‍पणियां:

  1. असल बात यही है... बिहार का भी यही हाल है.. बंद ही होना चाहिए कैम्प..

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (17-11-2014) को "वक़्त की नफ़ासत" {चर्चामंच अंक-1800} पर भी होगी।
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    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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