शनिवार, 20 जून 2015

अकविता 'बदलता वक्त' (अमन 'चाँदपुरी')

'बदलता वक्त'
परिवर्तित होता जा रहा 
आज मौसम
जाड़ा, गर्मी और बरसात
हाय रे ! तीनों भयानक,
तीनों निर्मम
सह नहीं पाता मेरा बदन
एक के गुजरने पर दूसरा
बिन बताये शुरू कर देता अपनी चुभन
कैसा है ये परिवर्तन
क्यों होता है ये परिवर्तन
समय बदलता रहता है
काल का पहिया चलता रहता है
जमाने पर भी इसका असर है
बदला-बदला सा हर मंजर है
यहाँ नये रंग-रूप नित्य खिलते हैं
अजीबो-गरीब मुसाफिर
जीवन सफर में मिलते हैं
पहले छोटे बच्चे सा मैं दिखता था
हरेक को बहुत अच्छा लगता था
वही कवि कहकर
मुझे आज चिढा रहे हैं
अपने छोटे से उस मासूम बच्चे को
भूलते जा रहे हैं
सच
कितना असहाय हो गया मैं
कितना बूढा हो गया तुम्हारा अमन
जमाने से कितना पिछड गया हूँ
अकेलेपन के सपने से मैं डर गया हूँ
बदलते वक्त के अनुरूप
मैं भी ढल जाऊगाँ  
पुराने खोटे सिक्के की तरह
एक बार फिर चल जाऊगाँ। 

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