सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

उर्दू बहर पर एक बातचीत : क़िस्त 24 [मुतक़ारिब की मुज़ाहिफ़ बह्र-2]

  उर्दू बह्र पर एक  बातचीत :क़िस्त 24 [ मुतक़ारिब की मुज़ाहिफ़ बह्र-2 ] 

पिछली क़िस्त में हम बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन और मुसद्दस सालिम और उसकी मुज़ाइफ़ रुक्न पर चर्चा कर चुके हैं ।अब इस बहर की मुज़ाहिफ़ शकल की चर्चा करेंगे।

Discliamer clause -वही जो क़िस्त 1 में है ]

आप ने हिन्दी फ़िल्म ’आरज़ू” का यह गाना ज़रूर सुना होगा >

ऎ फूलों की रानी बहारो की मलिका
तेरा मुस्कराना गज़ब  हो गया

न  दिल होश में है न हम होश में हैं 
नज़र का मिलाना गज़ब हो गया

मगर आप ने कभी इस गाने के बह्र पर ध्यान न दिया होगा ज़रूरत भी नही थी । मगर हाँ ,जिन्हे शे’र-ओ-शायरी का ज़ौक़-ओ-शौक़ है उनके लिए --इस गाने का बह्र है     फ़ेऊलुन....फ़ेऊलुन....फ़ेऊलुन....फ़ेऊलुन   [122    --122---122---122-] बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम। तक़्तीअ कर के देख सकते हैं  मैने शुरु में ही कहा था कि बह्र-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम  बहुत ही सादा साधारण मगर दिलकश  बहर है और पुरानी हिन्दी फ़िल्मों के बहुत से दिलकश गाने इस  बह्र में लिखे गये हैं गाये गये हैं और पिक्चराइज़ किए गये है
आप ने हिन्दी फ़िल्म ’दो कलियाँ- का यह गाना भी ज़रूर सुना होगा

तुम्हारी नज़र क्यूं खफ़ा हो गई
ख़ता बख्श दो गर ख़ता हो गई

हमारा इरादा तो कुछ भी न था
तुम्हारी ख़ता खुद सज़ा हो गई

---तो यह किस बहर में है?
अगर आप तक़्तीअ करेंगे तो इस का वज़न उतरेगा    122---122---122---12
जी बिल्कुल सही यह भी बहर मुतक़ारिब ही है मगर अरूज़ और जर्ब के मुकाम पर [12] ज़िहाफ़ लग गया अत: बज़ाहिर यह बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन की कोई मुज़ाहिफ़ बहर ही  होगी ।देखते हैं क्या है?

यह तो आप जानते ही हैं कि बहर-ए-मुतक़ारिब की बुनियादी सालिम रुक्न है --फ़ऊ लुन  [1 2 2 ] = जो वतद-ए-मज्मुआ+ सबब-ए-ख़फ़ीफ़  से बना है तो लाजिमन इस सालिम रुक्न पर वही ज़िहाफ़ लगेंगे जो वतद-ए-मज्मुआ और सबब-ए-ख़फ़ीफ़ के लिए मुकर्रर है और शर्त यह भी जो 5-हर्फ़ी रुक्न पर लग सके ,कारण कि ’फ़ऊलुन [122] एक 5-हर्फ़ी रुक्न है
वतद-ए-मज्मुआ पर लगने वाले वो ज़िहाफ़ जो ’ फ़ऊलुन’ पर लग सकते हैं ----सलम----....बतर....
हम पहले भी लिख चिके है कि अगर ’फ़ऊलुन’ पर सलम या बतर का ज़िहाफ़ लगेगा तो क्या होगा } चलिए एक बार फिर देख लेते है
फ़ऊलुन [ 1 2 2 ]+ सलम  = फ़अ लुन् [2 2] [ऐन यहां बसकून है ]  और यह ’असलम कहलाता  है जो इब्तिदा और सदर से मख़्सूस है
फ़ऊलुन [1 2 2 ] +बतर    = फ़ अ [2]       [यहाँ भी ऐन बसकून है] और यह अबतर कहलाता है जो अरूज़ और जर्ब से मख़्सूस है  
सबब-ए-ख़फ़ीफ़ पर लगने वाले वो ज़िहाफ़ जो ’ फ़ऊलुन’ पर लग सकते हैं ----क़ब्ज़....क़स्र.....हज़्फ़-----तस्बीग़
ऊपर वाले जो मुफ़र्द जिहाफ़ में से कुछ आम ज़िहाफ़ हैं जो शे’र के किसी मुकाम पर लग सकते है ----
और कुछ ख़ास ज़िहाफ़ हैं जो शे’र के खास मुक़ाम सदर/अरूज़...इब्तिदा...जर्ब] पर ही लग सकते हैं जैसे ज़िहाफ़ सलम- इब्तिदा और सदर  मुक़ाम  के लिए ख़ास होते हैं [
अच्छा ,जब हम पिछले अक़सात [क़िस्तों ] में  ज़िहाफ़ात की चर्चा कर रहे थे  तो एक ज़िहाफ़ ’सरम; की भी चर्चा किए थे । सरम एक मुरक़्क़ब ज़िहाफ़ है जो दो ज़िहाफ़ से मिल कर बना है और वो दो ज़िहाफ़ हैं-ख़रम[सलम]+ क़ब्ज़ ।

अब आप कहेंगे  कि  ख़रम के साथ सलम क्यों लिख दिया । बात ये है कि वतद-ए-मज़्मुआ [3-हर्फ़ी लफ़ज़] के सर-ए-मज़्मुआ [यानी पहला हर्फ़-ए-हरकत] का सर काटना तो ख़रम कहलाता है और जब यही अमल जब ’फ़ऊलुन’ पे किया जाता है तो इस क्रिया का नाम ’सलम’ हो जाता है । काम एक ही है ,नाम अलग ।[अरूज़्दानों की मरज़ी-हा हा हा] ख़ैर
जब ’फ़ऊलुन’ पर सरम का अमल होगा तो क्या होगा ???

फ़ऊलुन [1 2 2] +सरम [यानी सलम+क़ब्ज़] = यानी दोनो ज़िहाफ़ का अमल एक साथ होगा तो हासिल होगा ’ फ़अ लु ’[ 21] -यानी अ-एन ब सकून है और लाम मय हरकत है और इसे ’असरम’ कहते हैं
आप अभी दो मुज़ाहिफ़ शकल याद रखे
फ़ऊलुन [122]  का असलम =  फ़अ लुन [2 2]
फ़ऊलुन [122]  का  असरम  = फ़अ लु   [2 1]
अब आप पूछेंगे कि इसकी क्या ज़रूरत है?
इन मुज़ाहिफ़ शकल पर जब तख़नीक़ का अमल   करेंगे तो इसी मुतक़ारिब बहर से 250 से ज़्यादा बहर और बरामद हो सकती है जो आपस में अदल-बदल [ बाहम मुतबादिल] की जा सकती है और बहर-ए-मुतक़ारिब के कलाम में  और रंगा रंगी पैदा की जा सकती है । हम यहाँ उन 250 बहूर की चर्चा नहीं करेंगे -कारण एक तो इसकी यहाँ ज़रूरत नहीं है और दूसरा किसी नए सीखनेवाले किसी दोस्त को इस stage पर confusion पैदा कर सकता है और मूल विषय out of Focus भी हो सकता है
अगर कभी मौक़ा मिला तो इस पर अलग से बातचीत करेंगे
हां , तख़नीक़ के बारे में पहले भी चर्चा कर चुका हूँ .एक बार फिर दुहरा दूँ कि ज़ेहन नशीन हो जाए
अगर किसी दो consecutive  ’मुज़ाहिफ़’ रुक्न में ’तीन मुतहर्रिक ’ एक साथ आ जाए तो -बीच वाला मुतहर्रिक ’हर्फ़’ -साकिन हो जाता है । इसे तख़्नीक़ का अमल कहते है और बरामद मुज़ाहिफ़ को ’मुख़्नीक़’ कहते हैं।
 
बात चली तो बात निकल आई

....पिछली क़िस्तों में बह्र-ए-मुतक़ारिब की सालिम बह्र [ मुरब्ब: मुसद्दस,मुसम्मन और इनकी  मुज़ाइफ़ शकल  ] पर बातचीत  की थी और जहाँ तक सम्भव हुआ कुछ मिसालें भी दी थी। वैसे तो हर बहर पर तात्कालिक [तुरन्त] मिसाल मिलना तो मुश्किल है कारण कि शायरों ने ऐसे बहूर में कम ही शायरी की है जैसे मुतक़ारिब  मुरब्ब: सालिम बह्र या मुसद्दस मुज़ाइफ़ या मुसम्मन मुज़ाइफ़ में । इस बह्र मे सबसे ज़्यादा मक़्बूल [लोकप्रिय] शकल मुतक़ारिब मुसम्मन [8-रुक्नी बहर] ही  है जिस की सबसे ज़्यादा मिसाल मिलती हैं । उसी प्रकार इसी सालिम बह्र की मुज़ाहिफ़ की सभी शकल में मिसाले प्रचुर मात्रा में नहीं मिलती ।इक्का-दुक्का मिल जाए तो अलग बात है । अमूमन मुरब्ब: में कोई ख़ास शे’र कहता  नहीं } बहर-ए-मुतक़ारिब पर कौन कौन से ज़िहाफ़ लगते हैं या लग सकते है ,ऊपर लिख चुका हूँ और साथ ही उन ज़िहाफ़ात का अमल कैसे होता है उस पर भी चर्चा कर चुका हूँ अत: आप चाहे तो ख़ुद साख़्ता शे"र उन तमाम मुमकिनात [संभावित] ज़िहाफ़ लगा कर कह सकते है या अभ्यास कर सकते है ।यहाँ सिर्फ़ उन्ही  मुतक़ारिब के मुज़ाहिफ़ शकल की चर्चा करेंगे जो आजकल काफी प्रचलित है मानूस है  राइज़ है और अमूमन आम शायर जिसमे कसरत से [अधिकांश] शे’र या ग़ज़ल कहता है।। बेहतर होगा कि हम अपनी चर्चा मुतक़ारिब के मुसद्दस और मुसम्मन मुज़ाहिफ़  तक ही महदूद [सीमित] रखें
आलिम जनाब कमाल अहमद सिद्दीकी साहब के हवाले से एक शे’र बतौर मिसाल लिख रहा हूँ

ग़मज़े समझ लो .समझो अदाएं
उसकी वफ़ाएं ,उसकी ज़फ़ाएं

अब इसकी तक़्तीअ कर के देखते हैं
22       / 122       /  2  2    / 1 2 2   = 22-122 /   22-122
ग़म ज़े /स मझ लो /.सम झो /अ दाएं
2     2   / 1  2  2 / 2   2    /1  2 2   =   22-122 /  22-122
उस की /व फ़ाएं /,उस की /ज़ फ़ाएं
और इस बहर का नाम है-- बहर-ए-मुत्क़ारिब असलम सालिम मुरब्ब: मुज़ाइफ़-- यानी बहर तो छोटी सी नाम बड़ा सा --हा हा हा हा
ये नाम इस लिए कि इस बहर में ’फ़ऊलुन[1 2 2] प्रयोग हुआ है अत: बहर-ए-मुत्क़ारिब हुआ
22- जो फ़ऊलुन का  ’असलम’ है [उपर देखें ] अत: असलम लिखा और उसके बाद सालिम [122] आया तो असलम सालिम लिख दिया
22-122 यानी मिसरा में दो रुक्न आया है [शे;र मेम चार बार ] तो मुरब्ब: लिख दिया
मगर ये निज़ाम दुहराया गया है मिसरा में यानी [22-122/22-122] तो मुज़ाइफ़ [दो गुना] लिख दिया
अब पूरा नाम हो गया --- बहर-ए-मुत्क़ारिब असलम सालिम मुरब्ब: मुज़ाइफ़

1- बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन  महज़ूफ़ [122 --122---122---12] फ़ऊलुन---फ़ऊलुन---फ़ऊलुन--फ़अल्
फ़ऊलुन् [122] + हज़्फ़् = फ़अल् [12] -आप् याद् करे जब ज़िहाफ़ हज़्फ़ की चर्चा कर रहा था तो लिखा था सबब-ए-ख़फ़ीफ़ जिस पर रुक्न ख़त्म होता है को साक़ित करना [यानी उड़ा देना शान्त कर देना] ’हज़्फ़’ कहलाता है यानी ’लुन’ को उड़ा दिया तो बचा फ़ ऊ [12] जिसे ’फ़ अल् [12] से बदल लिया तो बहर को मुतक़ारिब मुसम्मन सालिम महज़ूफ़ कहते हैं
अब ऊपर जो गाना लिखा है

तुम्हारी नज़र क्यूं खफ़ा हो गई
ख़ता बख्श दो गर ख़ता हो गई

हमारा इरादा तो कुछ भी न था
तुम्हारी ख़ता खुद सज़ा हो गई
 -अब बताइए कि यह किस बहर में है
तक़्तीअ कर के देखते हैं
1 2  2   / 1 2  2  /  1 2   2  /12
तुम्हारी / नज़र क्यूं /खफ़ा हो/ गई
1  2   2   /  1  2   2  /1 2  2/1 2
ख़ता बख़/ श दो गर /ख़ता हो /गई
1 2  2 / 1 2 2/ 1 2   2   / 1 2
हमारा /इरादा /त कुछ भी/ न था
1 2  2 /  1  2  2   / 1 2   2 / 12
तुम्हारी /ख़ता खुद/ सज़ा हो/ गई

[नोट आप ज़रा लफ़ज़ ’बख़्श’ पर ध्यान दें । अगर हम बोल चाल मे ’बख़्श’ बोलेंगे तो यह [हरकत+ साकिन+साकिन] के वज़न पर होगा मगर तक़्तीअ में ’श’ [ फ़े-की जगह पर है जो बहर में हरकत की वज़न मांग कर रहा है] जो शायरी में जाइज़ है ।अत: गाने के समय ’श’ पर हल्का सा ज़बर आयेगा ] क्योंकि बहर की  माँग है और यह हल्का वज़न गाने में आप को सुनने में महसूस भी न होगा
इसी बहर में 1-2 मिसाल और देखते  हैं
मीर तक़ी मीर का एक शे’र है

फ़क़ीराना आए सदा कर चले
मियां ख़ुश रहो हम दुआ कर चले

कहें क्या जो पूछे कोई हम से ’मीर’
जहाँ में तुम आए थे क्या कर चले 

यह अश’आर भी बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़ में है।तक़्तीअ कर के आप खुद इस की गवाही दे सकते हैं

अल्लामा इक़बाल साहब की एक लम्बी नज़्म है साक़ीनामा
चन्द अश’आर पेश है
हक़ीक़त ख़ुराफ़ात में खो गई
यह उम्मत रवायात में  खो गई

गया दौर-ए-सरमायादारी गया
तमाशा दिखा कर  मदारी  गया  

यह अश’आर भी बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन महज़ूफ़ में है।तक़्तीअ कर के आप खुद इस की गवाही दे सकते हैं

2-बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन  मक़सूर [122---122---122--121 ]  फ़ऊलुन----फ़ऊलुन---फ़ऊलुन---फ़ऊल् [ ल् -यानी लाम साकिन है यहाँ ]
 फ़ऊलुन [122] +क़स्र ज़िहाफ़ = फ़ऊल् [121]

अगर् आप को याद होगा जब कस्र ज़िहाफ़ का ज़िक्र कर रहा था तो लिखा था
अगर किसी रुक्न के आखिर में सबब-ए-ख़फ़ीफ़ हो तो इसके आखिरी  साकिन [लुन का नून]को गिराना और उसके पहले वाले हर्फ़ [लाम को ] को साकिन कर देना  ज़िहाफ़ क़स्र का काम है और जो रुक्न बचता है -फ़ऊ ल् -उसे मक़्सूर कहते है<
अत्: पूरे बहर का नाम होगा - बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन मक़्सूर
उदाहरण
इक़बाल साहब का एक शे’र उसी नज़्म [साक़ीनाम] से ही

फ़ज़ा नीली नीली हवा में सुरूर
ठहरते नहीं आशियां  में  तयूर

तयूर = पक्षी ,इसी से ताइर या ताइराना लफ़्ज़ बना है [ताइराना का मतलब होता है विहंगम दृष्टि से या a bird's eye view]
इसकी तक़्तीअ करते हैं
1  2   2  / 1   2  2 / 1 2  2/ 1 2 1
फ़ज़ा नी /लि नी ली / ह वा में /सुरू र
1  2   2 / 1 2  2   /1 2   2  /1 2 1
ठ हर ते /नहीं आ /शियां  में  /तयूर

यहां पहला ’नीली’ को ’नीलि [21] के वज़न पर लिया गया है ।क्या करें ? बह्र की माँग ही है उस मुक़ाम पर जो उर्दू शायरी में जाइज़ भी है इसे Poetic Liscence कहते हैं। जहाँ तक सम्भव हो यह ’पोयेटिक लाईसेन्स] -कम से कम ही प्रयोग करना पड़े तो अच्छा ।
एक दिलचस्प बात और ....

इस बहर में  अरूज़ और जर्ब के मुक़ाम पर ही ज़िहाफ़ लग रहा है तो बज़ाहिर यह ख़ास ज़िहाफ़ ही होगा और यह दोनो ज़िहाफ़ -महज़ूफ़-और मक़्सूर आपस में बाहम तबादिल भी है यानी आपस में अदला-बदली भी किए जा सकते हैं  किसी शे’र में अगर मिसरा ऊला में में महज़ूफ़ लगा है और मिसरा सानी में मक़्सूर है तो आपस मे बदले भी जा सकते है यानी मिसरा उला में मक़्सूर और मिसरा सानी में महज़ूफ़ लाया जा सकता है। ये तो ठीक है । तो फिर बहर का नाम क्या होगा ? उसे मक़्सूर कहेंगे कि महज़ूफ़ कहेंगे?
जी बहर का नाम -मिसरा सानी -में आप ने जो ज़िहाफ़ प्रयोग किया है उसी से निर्धारित होगा ।यानी मिसरा सानी में आप ने मक़्सूर ज़िहाफ़ लगाया है तो बहर का नाम होगा -बहर-ए-मुतक़ारिब मुसम्मन मक़्सूर [ अल आखिर] । अल आखिर इस लिए जोड़ देते हैं कि पता रहे कि ज़िहाफ़ किस मुकाम पर लगा है । क्लासिकल अरूज़ की किताब में ’अल आखिर’ का ज़िक्र नही है पर आधुनिक बहर की नामकरण की पद्धति में -इसका प्रयोग करते है ।इस पर चर्चा कभी बाद में करेंगे।

इसी प्रकार हम बहर-ए-मुतक़ारिब मुसद्दस महज़ूफ़ और बहर-ए-मुतक़ारिब मुसद्दस मक़्सूर भी समझ सकते हैं या इसकी मुज़ाइफ़ शकल भी समझ सकते हैं

अगली किस्त में  हम मुतक़ारिब के ऐसे मुज़ाहिफ़ शकल [असलम और असरम ] की बात करेंगे जिस से  ग़ज़ल में ज़्यादा  रंगा रंगी आती है जिस से बहर और दिलकश हो जाती है।


--इस मंच पर और भी कई साहिब-ए-आलिम मौज़ूद हैं उनसे मेरी दस्तबस्ता [ हाथ जोड़ कर] गुज़ारिश है कि अगर कहीं कोई ग़लत बयानी या ग़लत ख़यालबन्दी  हो गई हो तो निशान्दिही ज़रूर फ़र्मायें ताकि मैं ख़ुद को  दुरुस्त कर सकूं ।बा करम मेरी मज़ीद [अतिरिक्त] रहनुमाई फ़र्माये ।मम्नून-ओ-शुक्रगुज़ार रहूँगा।

अभी नस्र के कुछ बयां और भी हैं..........
ज़िहाफ़ात् के कुछ निशां और भी हैं.....

एक बात बड़े ही अदब से एतराफ़ [स्वीकार] करता हूँ कि इन तमाम अक़्सात ,तज़्क़िरात  और तहरीर के लिए अपने आलिम अरूज़ी साहिबान  कमाल अहमद सिद्द्क़ी साहब , डा0 शम्सुर्र्हमान फ़ारुक़ी साहब ,आलिम जनाब  सरवर आलम राज़ ’सरवर ’ साहब  , अजीज  दोस्त डा0 आरिफ़ हसन ख़ान साहब  का तह-ए-दिल  से मम्नून-ओ-शुक्र गुज़ार हूँ जिनकी किताबों से  कुछ पढ़ सका ,समझ सका और लिख सका ।वगरना इस हक़ीर इतनी  बिसात कहाँ  औक़ात कहां । इन तज़्क़िरात में  मेरा कुछ भी अपना नहीं है बस  आलिम साहिबान  के अरूज़ पर किए गए कामों का हिन्दी तर्जुमा समझिए........

[नोट् :- पिछले अक़सात  [क़िस्तों ]के आलेख [ मज़ामीन ]आप मेरे ब्लाग पर  भी देख सकते हैं 

www.urdu-se-hindi.blogspot.com
or
www.urdusehindi.blogspot.com
-आनन्द.पाठक-
0880092 7181


1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (05-03-2017) को
    "खिलते हैं फूल रेगिस्तान में" (चर्चा अंक-2602)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

    जवाब देंहटाएं