शनिवार, 13 अप्रैल 2019

एक ग़ज़ल : जब भी शीशे का ---

एक ग़ज़ल : जब भी शीशे का इक मकां देखा---

जब भी शीशे का इक मकां देखा
पास पत्थर की थी दुकां,  देखा

दूर कुर्सी पे  है नज़र जिसकी
 उसको बिकते जहाँ तहाँ  देखा

वादा करता वो कस्में खाता है
पर निभाते हुए कहाँ   देखा

जब कभी ’रथ’ उधर से गुज़रा है
बाद  बस देर तक धुआँ  देखा

कल तलक जो भी ताजदार रहा
मैने उसका नहीं निशां  देखा

आदमी यूँ तमाम  देखे  हैं
’आदमीयत’ नहीं  अयाँ  देखा

सच को ढूँढें कहाँ, किधर ’आनन’
झूठ का बह्र-ए-बेकराँ  देखा

=आनन्द.पाठक-

[बह्र-ए-बेकरां = अथाह सागर]

12 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (14-04-2019) को "दया करो हे दुर्गा माता" (चर्चा अंक-3305) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    दुर्गाअष्टमी और श्री राम नवमी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. जब भी शीशे का इक मकां देखा
    पास पत्थर की थी दुकां, देखा


    बहुत खूब. .....



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  3. Ghazal ke bahane aapne duniya ki haqiqat bayan kar di. Badhayi.
    Shayad ye bhi Aapko pasand aayen- Prevention of thermal pollution , Images of acid rain

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