मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

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 हिंदी पर राजनीति


आज हमारे देश भारत में किसी भी मुद्दे पर राजनीति संभव है। चाहे वह क्षेत्र हो , भाषा हो, सवर्ण या दलित संबंधी हो, सेना हो या कोई व्यक्ति विशेष ही क्यों न हो। यहाँ तो मुद्दे बनाए ही जाते हैं राजनीति के लिए । किसी भी मुद्दे का कभी भी राजनीतिकरण किया जा सकता है। हमारे राजनेता चाहे वो किसी भी पार्टी के हों, इसमें विलक्षण प्रतिभा रखते हैं। यहाँ तक कि भारत भू-भाग के दिशाखंड – पश्चिमी भारत, दक्षिणी भारत या अंचल - विदर्भ, सौराष्ट्र, रॉयलासीमा, मराठवाड़ा जैसे क्षेत्रों के साथ भी राजनीति जुड़ी हुई है। किसी भी मुद्दे पर जनता को बाँटकर उसे वोट में परिवर्तित करने की राजनीति यहाँ प्रबल है। मैं न विदेश गया न जाने की तमन्ना है इसलिए वहाँ के हालातों को बयाँ करना या उनसे तुलना करना मेरे लिए संभव नहीं है।

इस देश में राजनीतिक मुद्दे कुरेद - कुरेद कर निकाले व बनाए जाते हैं। इतिहास को कुरेदकर मुद्दे निकालना और उनका ढिंढोरा पीट - पीटकर जनता को पुनः - पुनः जगाना, फिर उससे जनता को बाँटकर वोट में तब्दील करना - राजनीतिज्ञों का विशोष काम रह गया है। दल कोई भी हो, नेता कोई भी हो, काम यही है। लोगों को वोटों के लिए बरगलाने के सिवा नेताओं का कोई काम नहीं रह गया है, न ही राजनीति का मकसद कुछ और है। यही उनका जीवन यापन है, यही उनका धंधा है। इसी मकसद के कारण यहाँ मुद्दे सुलझाए नहीं जाते, उलझाए जाते हैं और सड़ने की लिए रखे जाते हैं और चुनाव – दर - चुनाव उन्हें बार - बार भुनाया जाता है - वोटों के लिए. भारत की ज्यादातर जनता बेचारी इस विषय में या  तो मूर्ख है या मतलब के लिए मूर्ख ही बनना पसंद करती है. जब नेता और जनता एक मत हों तो कुछ और कैसे होगा इसलिए मुद्दे तो बनते हैं, पर कभी सुलझते नहीं, उनको उलझाने का काम नेताओं ने ले रखा है. साथ में उलझती है जनता और नेता वोट बटोर लेते हैं. मुद्दा सुलझा मतलब एक वोट बैंक मृत.

बोफोर्स, गोधरा, भोपाल गैस, 1984 के दंगे, राष्ट्रभाषा का मुद्दा, आरक्षण का मुद्दा (विशेषकर नारी आरक्षण) व सुविधाएँ  ये सब ऐसे ही वोटदायक मुद्दे हैं जिन पर राजनेताओं की श्वास चलती है. राममंदिर, बेरोजगारी, गरीबी, गंगा (नदियों) की सफाई ऐसे बहुत गिनाए जा सकते हैं. इतिहास से कुरेदकर नए मुद्दे भी जोड़े जा रहे हैं. गाँधी हत्या ऐसा ही नया जीता 

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